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________________ ५०० मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म गंगाराम हलवाई के पुत्र श्री रामकिशन की पत्नी श्रीमती रामरखी की कुक्षी से चार पुत्रियों और दो पुत्रों ने जन्म लिया। श्री गंगाराम हलवाई के पूरखा सनातन (वादक)धर्मानुयायी थे । श्री गंगाराम हलवाई ने स्थानकवासी जैनधर्म को स्वीकार कर लिया था। अत: श्री रामकिशन का सारा परिवार इसी पंथ का अनुयायी था। छोटे पुत्र का नाम श्री काशीराम था । इसने मोगा नगर में एम० डी० कालेज में एफ० ए० (इंटर) तथा लाहौर के एस० डी० (सनातनधर्म) कालेज में शिक्षा प्राप्त कर बी० ए० की उपाधि प्राप्त की। इसका विवाह १६ वर्ष की आयु में नरूला गोत्रीय अरोड़ा जाति की शांतिदेवी नाम की कन्या से रामपुरा-फूल नगर में हुआ। इससे एक पुत्री का जन्म हुआ। विवाह से लेकर सात वर्षों तक संसार सुख भोगा। इसका एक ब्राह्मण लड़का मित्र था। उसका नाम सुशीलकुमार था। काशीराम ने स्थानकवासी साधु कुन्दनलाल से तथा सुशीलकुमार ने छोटेलाल नामक साधु से स्थानकवासी पंथ की साध दीक्षा लेने का निश्चय किया । सुशीलकुमार ने दीक्षा ले ली परन्तु काशी राम को दीक्षा लेने की आज्ञा घरवालों ने नहीं दी । (सुशीलमुनि आजकल स्थानकवासी साधु के वेश में अमरीका आदि देशों में विश्वधर्म प्रचार के लिए चला गया हुआ है और संभवतः वहीं रहेगा) । काशीराम का जन्म मार्गशीर्ष सुदि १५ संवत् १९७२ विक्रमी (ई. १९१५) में हुआ था। दिनांक २ जनवरी, १६३८ (वि. सं. १६६४) को काशीराम घरवालों को कहे बिना चुपचाप घर से एकाकी निकल गया और बम्बई जा पहुंचा। वहां इसकी सेठ लालभाई माणेकचन्द पेथापुर वालों से भेंट हुई । उससे काशीराम ने दीक्षा लेने की भावना व्यक्त की। वह इसे तपागच्छीय योगनिष्ठ आचार्य श्री बुद्धिसागर सूरि के पट्टधर आचार्य श्री कीर्तिसागर सूरि के शिष्य मुनि श्री जितेन्द्र सागर के पास ले गया। वि० सं० १६६४ पोष वदि १० के दिन २२ वर्ष की आयु में अहमदाबाद में मुनि जितेन्द्रसागर से दीक्षा ग्रहण की। नाम मुनि आनन्दसागर रखा । दीक्षा लेने के १० मास बाद आनन्दसागर ने जगरांवां में कुन्दनलाल साधु को एक पत्र लिखा । जिसमें लिखा था कि-"मैंने दीक्षा ले ली है। मेरी तरफ से मेरे घरवालों को कष्ट हुआ है, उसके लिए क्षमा चाहता हूँ।" मुनि कुन्दनलाल ने वह पत्र प्रानन्दसागर के पिता रामकिशन को दे दिया। पत्र प्राप्त होतेही पिता अपनी पुत्रवध शांतिदेवी को साथ लेकर प्रानन्दसागर के पास जा पहुंचा और प्रानन्द सागर को घर लौटने के लिए विवश कर दिया। लाचार प्रानन्दसागर साधुवेश छोड़कर घर लौट प्राया। यह अपने पिता के साथ दुकान पर काम करने लगा। चार मास बाद स्थानकवासी स्व० ऋषि रूपचन्द की जगराबां में शताब्दी मनाई गई । मौका पाकर काशीराम (प्रानन्दसागर) रात के समय चोरी से घर से पुनः भाग निकला। प्रहमदाबाद में पहुंचकर इसने पुनः बुद्धिसागर सूरि जी के प्रशिष्य श्री हेमेन्द्रसागर जी से पुनः दीक्षा ग्रहण की और नाम मुनि कैलाशसागर रखा गया। दीक्षा लेने के बाद मुनि श्री कैलाशसागर ने प्राचार्य कीर्तिसागर की निश्रा में रहकर प्रकरणों, कर्मग्रंथों, पागमों प्रादि का अभ्यास किया। संस्कृत, प्राकृत, गुजराती आदि भाषाओं के ग्रंथों का अभ्यास कर विद्वता प्राप्त की। तीव्र बुद्धि होने के कारण कुछ ही वर्षों में आपकी गणना योग्य बिद्वानों में होने लगी। पंजाबी तो प्रापकी मातृभाषा थी ही, उर्दू, अंग्रेजी आदि भाषाओं का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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