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________________ आदर्शोपाध्याय सोहन विजय जी ४६५ अमृतसर में हुआ था। बसंतामल को अपने माता-पिता का सुख अधिक समय तक नहीं मिला क्योंकि उनका स्वर्गवास इस की छोटी अवस्था में ही हो गया था। अतः बसंत मल प्रपनी बहन के वहां चला गया। बहनोई गोकलचन्द जी वहां स्टेशन मास्टर थे, उन्हों ने इस को स्कूल में पढ़ने के लिये बिठला दिया । थोड़े ही वर्षों में उर्दू, हिन्दी, अंग्रेजी आदि का अभ्यास कर लिया। शिक्षा प्राप्त करने के बाद तारघर में तार मास्टर की सरकारी नौकरी पर लग गये । ढूढक दीक्षा और उसका त्याग तथा संवेगी दीक्षा ग्रहण बसंतामल का चित्त संसार से विरक्त हो गया । बालब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा कर ली। पौर विक्रम संवत् १९६० भादों सुदि १३ को २२ वर्ष की आयु में सामाना नगर में ऋषि गेंडारामजी से ढूढक मत की दीक्षा ग्रहण कर उनके शिष्य बने । नाम ऋषि बसंतामल रखा । पर आप को यहाँ के प्राचार व्यवहार से संतोष न हुप्रा । मात्र चार मास इस सम्प्रदाय में रह कर आप ने इस मत के साधु वेश का त्याग कर दिया। अब आप श्वेतांबर मुनि वल्लभविजय (प्राचार्य विजयवल्लभ सूरि) जी की शरण में पहुंचे । पूज्य गुरुदेव ने बसंतामल को गुजरात-राजस्थान आदि के तीर्थों की यात्रा करने के लिये भेज दिया और कहा कि मेरे शिष्य मुनि ललितविजय इस समय गुजरात में ही विचर रहे हैं । वे तुम्हें दीक्षा दे देंगे और जनदर्शन का अभ्यास भी करायेंगे तथा लघु बन्धु के समान तुम्हें अपने पास भी रखेंगे। अम्बाला निवासी लाला गंगारामजी दूगड़ ने आपको मार्ग व्यय का सब खर्चा दिया और रेल द्वारा मार्ग में आने वाले सब तीर्थों की यात्रा करते हुए आप पाटण में प्रवर्तक श्री कांतिविजय जी के पास पहुंचे। उनके दर्शन करके अाप भोयणी तीर्थ में विराजमान शांतमूति मनि श्री हंस विजय जी के पास पहुँचे । मुनि श्री ललितविजयजी भी यहीं थे। आपने गुरुदेव का पत्र उन्हें दिया। मुनि श्री ललितविजय जी ने आपको अपने पास रखकर जीवविचार, नवतत्त्व, दंडक, संग्रहणी, कर्मग्रंथ, तीनभाष्य आदि प्रकरण ग्रंथों का अभ्यास कराया तथा व्याकरण, दशवैकालिक, साधु प्रतिक्रमण आदि . साधुचर्या के ग्रंथों का भी अभ्यास कराया। भोयणी से विहारकर मुनिराज मांडल पधारे। यहाँ के संघ ने बसंतामल को यहीं दीक्षा देने का आग्रह किया। पर बसंतामल ने कहा कि यदि आपकी प्राज्ञा हो तो मैं दीक्षा लेने से पहले देसाड़ा जाकर मुनिश्री शुभवि जय जी (मुनिश्री ललितविजय जी के गरुभाई) के दर्शन कर पाऊँ ? प्राज्ञा पाकर आप देसाड़ा पहुंचे और दर्शन करके कृत्यकृत हुए। यहां के श्रीसंघ के प्राग्रह से मांडल से विहार कर मुनिश्री हंसविजय जी तथा ललितविजय जी देसाड़ा पधारे और वि० सं० १९६१ बैसाख सुदि १० को बड़ी धूम-धाम से यहाँ बसंतामल जी को संवेगी दीक्षा दी गई । नाम मुनि सोहन विजय जी रखा गया और शिष्य श्री वल्लभविजय जी के बनाये गये । इस वर्ष का चतुर्मास मुनि श्री हंसविजय जी, ललितविजय जी आदि ठाणा १५ के साथ पालीताणा में किया। पश्चात् यहीं पर वि० सं० १६६१ मार्गशीर्ष वदि ६ को मुनि श्री संपतविजय जी ने प्रापको बड़ी दीक्षा दी। __अब श्री ललितविजय जी के साथ आपने पंजाब की तरफ विहार किया। वि० सं० १९६२ का चतुर्मास ओपने जीरा में पूज्य गुरुदेव श्री वल्लभविजय जी के साथ किया तथा वि० सं० १९६५ तक पंजाब में गुरुदेव के साथ ही रहे। वि० सं० १६६६ का चौमासा गुरुदेव के साथ पालनपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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