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________________ ४७७ आचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि एक पत्र को यहाँ उद्धृत करते हैं जो आप ने अपने शिष्य प्राचार्य श्री वियजललित सूरि को लिखा था। वन्दे श्री वीरमानन्दम् गुजरांवाला वि० सं० २००४ द्वि० श्रावण वदि ५ गुजरांवाला श्री प्रात्मानन्द जैन उपाश्रय ता० ७-८-१९४७ गुरुवार-पू० पा० प्राचार्य भगवान श्री विजयवल्लभ सूरि जी महाराज आदि ८ की तरफ़ से प्राचार्य श्री गुरुभक्त विजयललित सूरि जी, पंन्यास पूर्णानन्दविजय, श्री न्यायविजय प्रादि ठाणा १० पालनपुर योग्य वन्दनानुवन्दना, सुखसाता के साथ विदित हो कि यहां सुखसाता है तुम्हारी सुखसाता का पत्र उर्दू में लिखा आज मिला। तुम्हारे पत्रों तथा कई शहरों के श्रीसंघों व भक्त श्रावकों के जुदे-जुदे पत्रों-तारों से उन की भक्ति एवं धर्म की लगन विदित होती है । जिस में एक बात खास विचारने की है। किसी साहूकार की पुरानी दुकान की जिंदगी और इज्जत का सवाल पा जावे तो वह दुकानदार अपनी साहूकारी को किसी तरह का बट्टा लगाना पसन्द नहीं करेगा। इसी प्रकार इस धर्म की दुकान का जिसके साधु लोग मुनीम कहलाने का दावा करते हैं। उनका कर्तव्य है कि वे त्यागमय भावना से अपनी दुकानदारी को कायम रखें । तात्पर्य कि अपने जीवन को सुखमय बनाने के लिये जो कि क्षणभंगुर है, उस के लिये जन्म भरके उपार्जित संयम चारित्र (पुण्यादि) को आँखो से अोझल करना कोई बुद्धिमत्ता का काम नहीं है । इस लिये डट कर बैठे हुए हैं। ज्ञानी ने ज्ञान में जो देखा है सो ही होगा। ज्ञानी महाराज के इन वचनों का ख्याल करके "यद्भावी न तभावी भावी चेन्न तदन्यथा" के विचार हेतु श्री शासनदेव और सद्गुरु की कृपा से आज तक चारों ओर आग के शोले उठते रहे (सारा शहर चारों ओर से जल रहा है) परन्तु बचाव ही होता जा रहा है वे ही आगे को बचाव करेंगे। इसलिये किसी प्रकार की चिन्ता न करते हुए प्रभु के इस टकशाली वचन पर "भाग्यं फलति सर्वत्र न च विद्या न तु पौरुष" में श्रद्धा रखनी चाहिये । भगवान श्री महावीर स्वामी जैसे को भी किये कर्मों का फल भोगना ही पड़ा था। तुम और हम चीज़ ही क्या हैं ? इसलिये ज्ञानी महाराज के निश्चय और व्यवहार के वचनों पर ख्याल रखते हुए निश्चय को भी किसी समय स्थान देना योग्य समझा जाता है । चिन्ता न करना । साथ के सब साधुओं को सुखसाता है। नगर सेठ तथा नानालाल भाई आदि श्रीसंघ को धर्मलाभ । पू० पा० प्राचार्य भगवान की आज्ञा से लिखी सेवक समुद्र की सादर १००८ बार वन्दना । सब महात्मानों को वन्दना। कृपादृष्टि विशेष रखें। अपनी सुखसाता के समाचार भेजने की कृपा करते रहना जी।" आप चौमासा तोड़ना नहीं चाहते थे. परन्तु आचार्य श्री विजयनेमि सूरि, आचार्य श्री विजयलब्धि सूरि, प्राचार्य श्री विजयललित सूरि, प्राचार्य श्री विजय उमंगसूरि, आदि अनेक प्राचार्यदेवों के, पदवीधर मुनिराजों के और भारत के सभी श्रीसंघों के तारों और पत्रों का तांता बन्धा रहा कि जैसे भी बने वैसे शीघ्र आप भारत पहुंच जावें । इन सब का तथा गुजरांवाला में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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