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आचार्य विजयवल्लभ सूरि
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चौधरी दीनानाथ जी इस ग्रंथ लेखक के पूज्य पिता श्री हैं। जिनका स्वर्गवास आगरा में वि० सं० २०१० में हुआ था।
मानवप्रेमी-लोकमान्य आप संप्रदायिकता के संकीर्ण वातावरण से बहुत ऊंचे उठ चुके थे। देशकाल के पूर्णज्ञाता और महान सुधारक थे। वास्तव में जैनधर्म के रूप में प्राप ने भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता को सदा के लिये अमर बनाये रखने का प्रगाढ़ प्रयत्न किया । जैनधर्म भारत का परमधर्म है । सब मानव समान हैं, कर्मों का खेल ही मानव को उन्नत अथवा अवनत बनाता है, जैनधर्म जन्म से नहीं अपितु (कर्तव्य) से वर्ण जाति आदि की व्यवस्था मानता है। १. जो व्यक्ति स्वयं सच्चरित्र रहकर परिवार, समाज तथा राष्ट्र के चारित्र निर्माण में अपना जीवन लगाता है वही ब्राह्मण है। २. जो व्यक्ति परिवार, समाज तथा राष्ट्र की शत्र अओं से रक्षा करता है तथा स्वतः अपने कर्म शत्रुओं का क्षय कर निर्वाण प्राप्ति के लिये जागरूक रहता है वही क्षत्री है। ३. जो व्यक्ति परिवार, समाज, राष्ट्र को धन-धान्य प्रादि से समृद्ध बनाता है और उसका उपयोग उन के लिये करता है वही वैश्य है । ४. जो व्यक्ति परिवार, समाज, राष्ट्र की सभी तरह से सेवा सुश्रूषा करता है वह शूद्र है और गांधी जी की भाषा में हरिजन है । इसीलिये तो भंगी(कूड़ा-कचरा-गंदगी आदि की सफाई करने वाले) के लिये "मेहतर" शब्द का प्रयोग होता रहा है । महान, महत्तर, महत्तम अर्थात् उच्च आदर्श को कायम रखने वाला महान है । यह शब्द सच्चरित्र-विद्वान ब्राह्मण के लिये प्रयुक्त हमा मिलता है और जो महान से भी महान है वह महत्तर कहलाता है शब्द भंगी के लिने भारतीय संस्कृति में प्रयुक्त हुया पाया जाता है । पीछे से यह शब्द "मेहत्तर" के रूप में परिवर्तित हो गया। इस का प्राशय यह है कि भंगी ब्राह्मण से भी महान इस लिये है कि वह गंदगी को साफ करके विश्व के प्राणिमात्र को स्वस्थ रखने के लिये ऐसी उच्चतम सेवा का कार्य करता है जो दूसरे करने में अपना नाक, मुंह सिकोड़ते हैं। तीसरा शब्द महत्तम है इस का अर्थ है सब से महान, सर्वश्रेष्ठ इसी का पर्यायवाची महात्मा शब्द माध्यात्मिक, निष्परिग्रही, संत महापुरुष (साधु-मनिराज) जो सदा स्व-पर कल्याण करने वाले हैं। अतः जिस संस्कृति में गंदगी साफ करने वाले के लिये भी इतना सम्मान-आदरयुक्त शब्दों का प्रयोग पाया जाता है वहां किसी के प्रति घृणा, उपेक्षा अथवा हीनता के भावों का प्रश्न ही कहाँ है ? जनदर्शन में चारों वर्ण जन्मगत नहीं माने हैं। जैनागम उत्तराध्ययन सूत्र की नीचे लिखी गाथा से प्रभु महावीर ने स्पष्ट कहा है कि --
"कम्मुणा बम्मणो होइ, कम्मणा होई खत्तियो।
वइसो कम्मुणो होई, सुद्दो हवइ कम्मुणो ॥ अर्थात्---ब्राह्मण कर्म से होता है, क्षत्रिय कर्म से होता है, वैश्यकर्म से होता है और शूद्र भी कर्म (कर्तव्य) से होता है।
आप श्री अपने प्रवचनों में सदा फरमाते थे कि "न मैं जैन हूं, न बौद्ध, न वैष्णव, न शैव, न हिन्दू न मुसलमान हूं। मैं तो वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा द्वारा बताए हुए मार्ग पर चलनेवाला एक मानव हूं, सत्पथ का यात्री हूं, आज सभी शांति की इच्छा करते हैं, परन्तु शांति की खोज सबसे पहले अपने मन में ही होनी चाहिये ।"
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