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________________ ४५६ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म मानी होकर उसे वन्दना करने के लिये तैयार हो जाते । न न करते हुए भी विनय धर्म के प्रादेश का अनुसरण करते हुए आप वन्दना व्यवहार रखते । ज्ञान और विनय के तो आप भंडार ही थे। १३. पाप शास्त्रज्ञान के अगाध पंडित थे। जब कभी आप शास्त्रार्थ करते अथवा चर्चामों का समाधान करते तो सब तरफ़ से सूक्ष्म रीति से मनन करते थे। और बोलते समय ऐसा मालूम होता था कि टकसाल में से स्वर्ण-मुद्राएं एक के बाद एक झड़ रही हैं । मानो पूर्वाचार्यों के वचनों की अथवा प्राधारों की दृष्टि हो रही है। प्राप के कतिपय विचारदर्शन१. असम्य और हीन जातियों को जो बुरा मानते हैं, उन्हें मैं बुद्धिमान नहीं मानता। क्योंकि मेरा यह निश्चय है कि बुराई तो खोटे कर्म करने से होती है। जो ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रीय बुरा काम करे उसे अवश्य बुरा मानना चाहिये । सुकर्म करने वालों को उत्तम मानना चाहिये । नीच गोत्रवालों के साथ खाने-पीने का व्यवहार न रखने का कारण कुल की मर्यादा है। परन्तु उन की निन्दा करना, उन से घृणा करना महान अज्ञानता है। कारण कि जैनधर्म का सिद्धान्त है कि निन्दा-घृणा किसी से नहीं करनी चाहिये । २. सब गुणों में मुख्य गुण नम्रता-निराभिमानता है, इसे कभी न भूलें । जिस का रस-कस सूख गया है, ऐसा सूखा झाड़ सदा अक्कड़ बन कर खड़ा रहता है, परन्तु जिस वृक्ष में रस है, जो प्राणिमात्र को पके-मीठे फल देता है वह नीचे झुक कर ही अपनी उत्तमता का प्रदर्शन करता है। नम्रता से लज्जित नहीं होना चाहिये। कोई गाली दे, अपमान करे तो भी हमें फलों से झुके हुए आम्र वृक्ष के समान सर्वदा नम्रीभूत होकर लोकोपकार करना चाहिये । ३. जैनियों में सद्विद्या का उद्यम नहीं है । एकता (संगठन) नहीं है। साधुषों में भी प्रायः ईष्र्षा बहुत है । यह न्यूनता जैनधर्म के पालने वालों की है, जैनधर्म की नहीं है । जैनधर्म में न्यूनता किंचित मात्र भी नहीं है । ४. जो कोई भी जैनधर्म का पालन करते हों, उन के साथ सगे भाई से भी अधिक स्नेह रखना चाहिये। "श्राद्धदिनकृत्य" में ऐसा वर्णन है। श्री रत्नप्रभ सूरि ने जब अठारह हज़ार परिवारों को जैनधर्मी बनाया था और उन्हें प्रोसवाल संज्ञा दी थी तब उन में राजपुत्र, क्षत्रिय वीर, वैभव-सम्पन्न वैश्य और ज्ञानाचरण सम्पन्न ब्राह्मण सभी थे । उन सब में रोटी व्यवहार भी चालू किया और बेटी व्यवहार भी चालू किया । पोरवाड़ वंश की स्थापना श्री हरिभद्र सूरि ने की थी। (इसी प्रकार श्रीमाल, श्रीश्रीमाल जातियों की स्थापनाएं भी जैनाचार्यों ने की)। जिन सेनाचाय और लोहाचार्य ने भी हजारों संख्या में जैन बनाये और उन में भी भिन्न-भिन्न वर्गों को मिलाकर उन की जातियाँ स्थापित की थीं । पश्चात् अनेक प्राचार्यों ने समय-समय पर अनेक परिवारों को नये जैन बनाकर प्रोसवाल आदि जातियों में शामिल किया और उन के नये गोत्र स्थापित करके सब में परस्पर रोटी-बेटी व्यवहार चालू किया। इस बात का इतिहास साक्षी है । अतः अपनी ही जाति को सर्वोच्च मानना और दूसरे जैन भाइयों के साथ रोटी-बेटी व्यवहार न रखना यह तो मात्र अज्ञानता और रूढ़ी ही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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