SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 498
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री विजयानन्द सूरि ४५५ पंजाब में इस धर्म का प्रवाह अविच्छिन्न रूप से सदा सर्वदा निर्मल गंगा की धारा के समान बहता रहे, उस के लिये जैन सरस्वती मंदिर की स्थापना भी चाहते थे। जिस में शिक्षण पाकर सम्यग्दृष्टि सच्चरित्र सम्पन्न और जैनदर्शन के प्रकांड विद्वान तैयार हो सके। इस कार्य के लिये गुजरांवाला को उपयुक्त स्थान समझा । इस लिये आप विहार करके गुजरांवाला पधारे भी, पर काल के आगे किसी का जोर नहीं चलता । तेल के प्रभाव में दीपक कब तक प्रकाशमान रह सकता है ? अन्त में वह बुझ ही जायेगा। इसी प्रकार आयुष्य कर्म के प्रभाव से मृत्यु अवश्यम्भावी है । अतः वि० सं० १६५३ जेठ सुदि ८ (ई० सं० १८९६) को आप का गुजरांवाला में स्वर्गवास हो गया। प्राप श्री की इस भावना को आप के पट्टधर प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जी ने पूर्ण किया। इन्हों ने वि० सं० १९८१ (ई० सं० १६२४) को गुजरांवाला में एक आदर्श संस्था श्री प्रात्मानन्द जैन गुरुकुल पंजाब की स्थापना की। . आप अपने समय में समस्त जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक (संवेगी) संघ के एक छत्र प्राचार्य होते हुए भी आप को पदवी का अभिमान छू नहीं पाया था । जाने-अनजाने थोड़ी सी भी भूल हो जाने पर आप श्री तुरत अपने बड़े गुरुभाई गणि श्री मुक्ति विजय (मूलचन्द) जी से पत्र द्वारा प्रायश्चित ले लेते थे। प्राचार्य की विनय निमित्त छोटे-बड़े सब साधू-साध्वियों का विधिपूर्वक वन्दन करने का प्राचार हैं। पर जब आप से दीक्षा में बड़े गुरुभाई पाप को वन्दना करना चाहते तो प्राप उन्हें यह कह कर मना कर देते थे कि मैं तो अपने से छोटों का प्राचार्य हूँ, बड़ों का नहीं । मैं तो आप से छोटा ही हूं। १०. जिस प्रकार प्रापश्री ज्ञान में प्रौढ़ थे उस से भी कहीं अधिक निरातिचार चारित्र पालने में कड़क थे। जब आप राजस्थान, गुजरात, सौराष्ट्र में विचरते थे तो आप के मुनि परिवार की इतनी धाक थी कि वहाँ के शिथिलाचारी साधु पाप लोगों का आना सुनते ही वहाँ से अन्यत्र विहार कर जाते थे। ११. पालीताना में श्री सिद्धाचल जी तीर्थ पर पाप श्री (विजयानन्द सूरीश्वर) जी की प्रतिमा दादा आदीश्वर प्रभु जी की मूल देहरे के प्रांगण में एक वेदी का निर्माण करवाकर श्री प्रानन्दजी कल्याण जी की पेढ़ी ने विराजमान की है। वर्तमानयुग के प्रापश्री ही ऐसे युगप्रधान प्राचार्य हुए हैं जिन की एक मात्र प्रतिमा श्री सिद्धगिरी पर विराजमान की गई है। प्रवर्तक कांतिविजय जो की हस्तलिखित नोट बुक के प्राधार पर १२. आप स्वभावतः बहुत मानन्दी थे ।(अपने मुनिमंडल को)कभी तो बहुत ही निर्दोष विनोद कराते । कभी-कभी शास्त्रीय राग रागनियां गाकर सुनाते । विधिवत स्वर-लय आदि समझाते । कभी-कभी गणितानुयोग की गहन-गंभीर बातों को विवेचनपूर्वक सरल शैली से प्रतिपादन करते । समय मिलने पर प्रकाश के ग्रह-तारों की पहचान कराते । अनेक बार न्यायशास्त्र की सूक्ष्म बातों का विवेचन करते और नय-निक्षेपों का महत्व सरल भाषा में समझाते । अनेक बार अपने आप ही पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्ष करके चर्चा की शैली बतलाते । श्रावकों को भी उनके योग्य उपदेश देते । अपने से बड़े अथवा दीक्षा में बड़े किसी भी मुनिराज का समागम होता तो तुरत निराभि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy