________________
४५०
मध्यएशिया और पंजाब में जैनधर्म
चाहते तो स्थानकमार्गी फिरके को छोड़कर दिगम्बर फिरके को अपना सकते थे और उसमें प्रतिष्ठा प्राप्तकर कुछ अधिक प्रमाण में जिज्ञासा की संतुष्टि पा सकते थे और विद्योपासना द्वारा बीर परम्परा का समर्थन कर सकते थे । किन्तु ऐसा लगता है कि आपकी भव्य और निर्भय आत्मा में कोई ऐसी ध्वनि उठो जिसने आपको अपेक्षाकृत वीर परम्परा का अखण्ड प्रतिनिधित्व प्राप्त फिरके की तरफ ही झुका दिया। हम देखते हैं कि आप ने अपने जीवन के थोड़े वर्षों में विशेष रूप से जीवन के अंतिम भाग के अमुक वर्षों में सारे जैन-जैनेतर साहित्य का मंथन कर डाला और उस के नवनीत रूप जो कुछ मिला गृथनकर दिया, जो आपके शब्दों में विद्यमान है ।1
इसी स्थान पर धनहस्ति की धर्मपत्नी पौर गुहदत्त की पुत्री ने धर्मार्था नामक श्रमणी के उपदेश से एक शिलापट्ट दान किया जिस पर स्तूप की पूजा का सुन्दर दृश्य अंकित है [E. I. Vol. I, no. 22] जयपाल, देवदास, नागदत्त नागदत्ता की जननी श्राविका दत्ता ने प्रार्य संघसिंह की निर्वर्तना मान कर वर्धमान प्रतिमा का ई० ६८ में दान किया। अन्य प्रधान दानत्री महिलाओं में कुछ ये थीं- सार्थवाहिनी धर्मसोमा (ई० १००), कौशिकी शिवमित्रा जो ईस्वी० पूर्वकाल में शकों का विध्वंस करने वाले किसी राजा की धर्मपत्नी थी (E. I. Vol. I, no. 32), स्वामी महाक्षत्रप सुदास के राज्य संवत्सर ४२ में पार्यवती की प्रतिमा का दान देने वाली श्रमणश्राविका अमोहिनी (E. I. Vol II, Ins. no 2), नर्तक फल्गुयश की धर्मपत्नी शिवयशा, भगवान् अरिष्टनेमि की प्रतिमा का दान करने वाली मित्रश्री, एक गन्धिक की माता, बुद्धि की धर्मपत्नी ऋतुनन्दी जिसने सर्वतोभद्रिका प्रतिमा की स्थापना की, श्राविका दत्ता, जिसने नन्द्यावर्त अर्हत की स्थापना देवनिर्मित बौद्ध स्तूप में की, भद्रनन्दी की धर्मपत्नी प्रचला और सबसे विशिष्ट तपस्विनी विजयश्री जो राज्यवसु की धर्मपत्नी, देविल की माता और विष्णुभव की दादी थी और जिन्हों ने एक मास का उपवास करने के बाद सं० ५० (१२८ ई०) में वर्धमान प्रतिमा की स्थापना
की।
इन पुण्यचरित्र श्रमणश्राविकामों के भक्तिभरित हृदयों की अमर कथा आज भी हमारे लिए सुरक्षित है और यद्यपि मथुरा का वह प्राचीन वैभव अब दर्शनपथ से तिरोहित हो चुका है तथापि इनके धर्म की अक्षम्य कीति सदा अक्षुण्ण रहेगी। वस्तुत: काल प्रवाह में अदृष्ट होनेवाले प्रपंचचक्र में तप और श्रद्धा ही नित्य मूल्य वस्तुएँ हैं । जैन तीर्थंकर तथा उनके शिष्य श्रमणों ने जिस तप का अंकुर बोया था उसी की छत्रछाया में सुखासीन श्रावक-श्राविकानों की श्रद्धा ही मथुरा के पुरातन वैभव का कारण थी। (श्री प्रात्माराम जी शताब्दी ग्रंथ पृ० ११ से ६६)
(नोट)-व्रज में मात्र मथुरा के कंकाली टीले से ही नहीं अपितु सैकड़ों मीलों में तीर्थ करों की प्रतिमाएं पाई जाती हैं । जो मथुरा और लखनऊ संग्रहालयों में सुरक्षित रखी गई हैं और ये सब श्वेतांबर जैनाचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित की गई थीं।
(लेखक) 1. श्री आत्मानन्द शताब्दी ग्रंथ ई० सं० १९३६ में पं० सुखलाल जी के लेख-वीर परम्परानुअखण्ड
प्रतिनिधित्व (गुजराती) का हिन्दी रूपांतर ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org