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________________ वीर परम्परा का अखण्ड प्रतिनिधित्त्व ४४६ श्रीमद् विजयानन्द सूरीश्वर जी के मन में कोई ऐसी अन्तःस्फुरणा हुई कि उनका जिज्ञासु मन स्थानकमार्गी फिरके के अल्पमात्र प्रागमिक साहित्य से संतुष्ट न रह सका। यदि थे महत्पजाय] ये दो वाक्य कितनी ही बार लेखों में आते हैं । ये उस काल के भक्तिधर्म की व्याख्या करने वाले दो सूत्र हैं जिन में इसलोक के जीवन को परलोक के साथ मिलाया गया है । गृहस्थों की पुरंध्री कुटुम्बिनी बड़ें गर्व से अपने पिता, माता, पति, पुत्र, पौत्र, सास-ससुर का नामोल्लेख करके उन्हें भी अपने पुण्य भागधेय प्रपर्ण करती थीं । स्वार्थ और परमार्थ का समन्वय ही मथुरा का प्राचीन भक्तिधर्म था। देवपाल श्रेष्ठी की कन्या श्रेष्ठी सेन की धर्मपत्नी क्षुद्रा ने वर्धमान प्रतिमा का दान करके अपने को कृतार्थ किया । श्रेष्ठी वेणी की धर्मपत्नी, भट्टिसेन की माता कुमारमित्रा ने प्रार्या वसुला के उपदेश से एक सर्वतोभद्रिका प्रतिमा की स्थापना की । यह वसुला आर्य जशभूति को शिष्या आर्या संगमिका की शिष्या थी । सर्वलोकोत्तम अर्हतों को प्रणाम करने वाली सुचिल की धर्मपत्नी ने भगवान् शांतिनाथ की प्रतिमा दान में दी। वज्री शाखा के वाचक आर्य मातृदत्त जो पार्य बलदत्त के शिष्य थे, इसके गुरु थे । मणिकार जयभट्टि की दुहिता, लोहवणिज फल्गुदेव की धर्मपत्नी मित्रा ने कोट्टिय गण के अन्तर्गत ब्रह्मदासिक कुल के बृहन्तवाचक गणि जमित्र के शिष्य आर्य मोघ के शिष्य गणि आर्यपाल के श्रद्धाचर वाचक आर्यदत्त के शिष्य वाचक पार्यसिंह को निर्वर्तना या प्रेरणा से एक विशाल जिन प्रतिमा का दान दिया । पुनश्च कोट्टिय गण के प्राचार्य आर्यबलत्रात की शिष्या संधि के उपदेश से जयभट्टकी कुटुम्बिनी ने प्रतिमा-प्रतिष्ठा की । (E. I. vol. 1 Mattura ins no 5) एवं इन्हीं प्रार्यबलत्रात की शिष्या संधि की भक्त जया थी जो नवहस्ती की दुहिता, गुहसेन की स्नुषा, देवसेन और शिवदेव की माता थी और जिसने एक विशाल वर्धमान प्रतिमा की ११३ ई० के लगभग प्रतिष्ठा कराई। (E. I- voll. no. 34) । पूज्य प्राचार्य बलदत को अपनी शिष्या आर्या कुमारमित्रा पर गर्व था । शिलालेख में उस तपस्विनी को 'संशित, मखित बोघित' (whetted polished and awakened) कहा गया है । यद्यपि वह भिक्षुणी थी। तथापि उसके पूर्वाश्रम के पुत्र गध्रिक कुमारभट्टिने १२३ ई० में जिनप्रतिमा का दान किया। यह मति कंकाली टीले के पश्चिम में स्थित दूसरे देवप्रासाद के भग्नावशेष में मिली थी। पहले देवमन्दिर की स्थिति इसके कुछ पूर्वभाग में थी । महाराजा राजाधिराज देवपुत्र हुविष्क के ४० वें संवत्सर [१२८ ई०] में दत्ता ने भगवान् ऋषभदेव की स्थापना की जिससे उसके महाभाग्य की वृद्धि हो। शिलालेख नं० ६ से ज्ञात होता है कि चारणगण के आर्यचेटिक कुल की हरितमालगढी शाखा के प्रार्य भगनन्दी के शिष्य वाचक आर्य नागसेन प्रसिद्ध प्राचार्य थे। ग्रामिक (ग्रामणी) जयनाग की कुटुम्बिनी और ग्रामिक जयदेव की पुत्रवधू ने सं० ४० में शिलास्तम्भ का दान किया। प्रार्या श्यामा की प्रेरणा से जयदास की धर्मपत्नी गढा ने ऋषभ प्रतिमा दान में दी । श्रमणश्राविका बलहस्तिनी ने माता-पिता और सास-ससुर की पुण्यवृद्धि के हेतु एक बड़े (8' x ३' x १'), तोरण की स्थापना की। कंकाली टोले के दक्षिण पूर्व के भाग में डॉ० बर्जम को खुदाई में एक प्रसिद्ध सरस्वती की प्रतिमा प्राप्त हुई थी जिसे एक लोहे का काम करने वाले (लोहिककारुक) गोप ने स्थापित किया था। कका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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