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________________ ४२६ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म थूकादि जमेगा ही नहीं तो त्रस जीवों की उत्पत्ति भी संभव नहीं है ।। इतनी चर्चा के बाद इस चर्चा की समाप्ति हो गई । अब आगे जिन प्रतिमा मावने और पूजने के लिये जो चर्चाएं हुई उन का भी संक्षिप्त उल्लेख करते हैं।। २. जिन प्रतिमा मानने और पूजने की चर्चा चर्चा का विषय था-क्या जिन प्रतिमा तीर्थंकर देव की मूर्ति है और उसे तीर्थंकर के समान वन्दना नमस्कार करना और पूजा-उपासना करना जैनागम सम्मत है अथवा नहीं ? पर्वपक्ष-स्वामी जी ! तीर्थंकर की मूर्ति मानना सर्वथा अनुचित है, उसकी पूजा से षट्काया के जीवों की विराधना होती है। तीर्थंकर भगवन्तों ने जीव विराधना (हिंसा) को आगमों में धर्म नहीं बतलाया ? मूलागमों में मूर्ति को मानने का कोई उल्लेख नहीं है। इसलिये आप जैसे म मुसु मुनि को ऐसा उपदेश देना शोभा नहीं देता ? उत्तरपक्ष-जैनागमों (अंग-उपांगम आदि) सूत्रों, शास्त्रों, के मूल पाठों में भी इन्द्रादि देवताओं, श्रावक-श्राविकाओं और साधु-साध्वियों आदि सब सम्यग्दृष्टियों के द्वारा जिन प्रतिमानों को वन्दन, नमस्कार, पूजन, उपासना आदि के अनेक पाठ विद्यमान हैं। जिस से उन सब ने उत्तम फल की प्राप्ति की है । यहाँ तक कि कर्मों को निर्जरा और क्षय करके केवलज्ञान पाकर मोक्ष तक प्राप्त किया है। जिस का बड़े विस्तारपूर्वक वर्णन है। उन का विवरण संक्षेप से इस प्रकार हैं पूर्वपक्ष-हम मात्र ३२ प्रागमों को ही मानते हैं क्योंकि वहीं जिनभाषित हैं बाकी के तो पीछे के प्राचार्यों ने जैसा मन में पाया वैसा लिख दिया है इसलिये हम उन्हें प्रमाण नहीं मानते । अतः इन बतीस सूत्रों के मूल पाठों में कहीं भी जिनप्रतिमा मानने के उल्लेख नहीं है। पीछे से इन पर लिखे गये नियुक्ति, चूणि, टीका, भाष्यादि करनेवाले प्राचार्यों ने अपनी टीकानों आदि में यदि उल्लेख कर दिया है तो वह हमें मान्य नहीं है। यदि ३२ सूत्रों के मूल पाठों में कोई प्रतिमा मानने के उल्लेख हो तो बतलामो ? उत्तरपक्ष-(१) ऐसी बात नहीं है कि बत्तीस सूत्र ही जिनवाणी है बाकी के आगमशास्त्र आदि जिनवाणी नहीं है । इस विषय की चर्चा का तो यहाँ प्रसंग नहीं है अतः बत्तीस सूत्रों में भी जिनप्रतिमा को मानने के मूल पाठ विद्यमान हैं- उन्हीं को सुनिये १. श्री प्राचारांग सूत्र (प्रथमांग) में प्रभु महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ को श्री पार्वनाथ संतानीय श्रावक कहा है । उस ने जिनेश्वरदेव की पूजाके लिये लाख रुपये खर्च किये और अनेक जिनप्रतिमानों की पूजा की। इस अधिकार में "जायअ" शब्द आया है जिस का अर्थ देवपूजा है। २. श्री सूयगडांग सूत्र की नियुक्ति में श्री जिनप्रतिमा को देखकर प्रार्द्र कुमार को 1. महपत्ती को विस्तारपूर्वक चर्चा का वर्णन मुनि श्री बुद्धिविजय (बूटेराय) जी ने अपनी स्वलिखित महपत्ति चर्चा नामक पुस्तक में की है जिस से उन्होंने इस विषय का ब, त विस्तार से स्पष्टीकरण किया है। विशेष रुचि रखने वाले उसे पढ़कर जान लेवें। यहां तो मात्र इतिहास को शृंखलाबद्ध करने के लिये संक्षेप मात्र लिखा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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