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________________ मुहपती चर्चा ४१६ चाहिये ! परन्तु ऐसा तो आप, आपके संत अथवा कोई अन्य भी नहीं करता ! प्रथमांग आचारांग श्रुत स्कन्ध २, अध्याय २, उद्देश्य ३ में कहा है कि अपने शरीर से सात कारणों से वायु निकलते समय भिक्षु प्रथवा भिक्षुणी को हाथ से ढांककर वायु का निसर्ग करना चाहिये । पाठ यह है— "भिक्खू वा भिक्खुणी वा उसासमाणे वा निसासमाणे वा कासमाणे वा छीयमाणे वा भाएमाणे वा उड्डुवाए वा वायणिसग्गे वा करेमाणे वा पुण्वामेव आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहिता ततो संजायेमेव श्रोसासेज्जा वायाणसग्गे वा करेज्जा ।" अर्थात् - वह साधु अथवा साध्वी १-श्वास लेवे, २. श्वास छोड़े, ३ खांसी करे, ४. छोंक करे, ५-जम्भाई ( उबासी) लेवे, ६- डकार लेवे अथवा ७ वायु का निसर्ग (गुदा से ) करे तो मुख, नासिका और अधिष्ठान श्रासन स्थान को हाथ से ढांककर करे । (अ) यहाँ पर मुख, नाक, अधिष्ठान श्रासन को हाथ से ढांकना कहा है, बांधना नहीं कहा यदि मुख बंधा होता तो हाथ से ढांकना क्यों कहा ? इससे स्पष्ट है कि जैन साधु-साध्वी को कभी भी चौबीस घंटे मुंह बांधना आगम सम्मत नहीं है (आ) यदि मुंह बाँधने से वायुकाय आदि की हिंसा का बचाव है और न बांधने से हिंसा होना मान भी लिया जाय तो मुख बांधने से खांसी, जंभाई, डकार और शब्द के वेग तो रुक गये किन्तु नाक से निकलने और अंदर जाने वाला प्रतिपल श्वास - निश्वास तथा कभी-कभी श्रानेवाली छींक एवं अधिष्ठान प्रासनस्थान (गुदा) से निकलने वाली वायु (पाद) द्वारा होनेवाली हिंसा से बचने के लिये मुँह के साथ अन्य दोनों स्थानों को भी बांधना चाहिये ? परन्तु ऐसा तो आप लोग भी नहीं करते ? छींक तथा पाद से निकलने वाले शब्द के साथ वायु का वेग तो श्वोच्छ्वास और मुख से निकलने वाले वाष्पादि से भी अधिक वेग पूर्ण होता है ? इससे स्पष्ट है कि तीनों स्थानों निकलने वाले वायु, शब्द और वाष्प से हिंसा संभव नहीं है । (इ) मुंह पर मुंहपत्ती बांधने से भी मुख से निकलने वाले वाष्प शब्द श्रादि मुँहपत्ती को पार करके अथवा उसके सब तरफ़ से निकलकर बाहर आते हैं रुक नहीं सकते । क्योंकि मुख से निकला हुआ शब्द जब वायु के द्वारा बाहर प्राता है तभी सुनाई पड़ता है । प्रज्ञापणा प्रादि जैनागमों में शब्द का तुरन्त चौदह राजलोक में फैल जाने का वर्णन श्राता है । यदि मुख के शब्द और वायु से हिंसा संभव है तो मुँहपत्ती बांधने पर भी वायु सहित शब्द के बाहर था जाने से हिंसा न रुक पायेगी । 2 1. वर्तमानकाल में सदाकाल मुहृत्ती बांधने वाले ऋषि, साधु-साध्वी भी लाउडस्पीकर ( ध्वनिवर्धक यंत्र) द्वारा व्याख्यान, प्रवचन आदि करते हैं जिस से शब्द अधिक वेग के साथ निकल कर दूर-दूर तक पहुंचता यदि शब्द से जीव हिंसा की इन को मान्यता सत्य है तो जान-बूझ कर लाउडस्पीकर का प्रयोग करना उनके लिये कहाँ तक उचित है ? 1 2. सम्मूच्छिम जीव - माता-पिता के संयोग के बिना, गंदगी प्रादि से उत्पन्न होने वाले द्विन्द्रीय से लेकर पंचेन्द्रीय तक जो प्राणी हैं वे सम्मूच्छिम कहलाते हैं। पैंतालीस लाख योजन परिमाण मनुष्य क्षेत्र में ढाईद्वीप और समुद्रों में पंद्रह कर्मभूमियों, तीस प्रकर्मभूमियों और छपन्न अन्तद्वीपों में गर्भज ( माता के गर्भ से पैदा होने वाले) संज्ञी मनुष्य रहते हैं । उनके मलमूत्रादि से सम्मूच्छिम मनुष्य भी उत्पन्न होते हैं। वे पंचेन्द्रीय होते हैं, उन की अवगाहना ( लंबाई ) अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है, प्रायु अन्तमुहुर्त की होती है, चर्मचक्षु से दिखलाई नहीं देते इतने सूक्ष्म हैं ये असंज्ञी (मन रहित) मिथ्यादृष्टि और प्रज्ञानी होते हैं अपर्याप्त अवस्था में ही मर जाते हैं। [पन्नवणा पद १ सूत्र ५६ आचारांग, मनुयोगद्वार ] For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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