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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
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दिट्ठीए मिच्छादिट्ठीए ? परित संसारए प्रणत- संसारए ? सुलभदिट्ठीए दुल्लभदिट्ठीए ? आराहए विराहए ? चरिमे श्रचरिमे ?
(उत्तर) गोयमा ! सरणं कुमारे णं देवींदे देवराया भवसिद्धीए, नो प्रभवसिद्धीए, एवं सम्मदिट्ठीए, परित संसारए, सुलभ बोहिए, प्राराहए, चरमे पसत्थं नेव्वा । ( प्रश्न) से केणट्ठणं भंते ?
(उत्तर) गोयमा ! सरणं कुमारे देवींदे देवराया बहूणं समणाणं, बहूणं समणीरगं, बहूणं सावयारणं हि बहूगं सावियाणं अकामए, सुहकामए, पत्थकामए, प्राणुकंपिए, निस्सेयसिए, हिय-सुह ( निस्सेसि निसेकामए) से तेणट्ठेगं गोयमा ! सणं कुमारे गं भवसिद्धीए, जाव नो चरिमे । अर्थात् - ( प्रश्न) "हे भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवताओं का राजा सनत्कुमार भवसिद्धिक है अथवा अभवसिद्धिक है ? सम्यग्दृष्टि है अथवा मिध्यादृष्टि है । मित्त संसारी है अथवा परिमत्त संसारी है ? सुलभ बोधवाला है अथवा दुर्लभ बोधवाला है ? प्राराधक है अथवा विराधक है ? चरिम है अथवा श्रचरिम है ?
(उत्तर) हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार भवसिद्धिक है पर प्रभवसिद्धिक नहीं है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि है, मित संसारी है, सुलभ बोधवाला है, भाराधक है, चरम है। यानी सब
प्रशस्त जानना ।
( प्रश्न) हे प्रभो ! ऐसा कहने का क्या कारण है ?
(उत्तर) हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों, बहुत श्राविकाओं का हितेच्छु है, सुखेच्छु हैं, पथ्येच्छु है उनपर अनुकम्पा करनेवाला है, उनका निःश्रेयस चाहने वाला है ( इन उपर्युक्त सब बातों का इच्छुक है ) । इसलिये हे गौतम ! वह सनत्कुमार इन्द्र भवसिद्धिक है यावत वह चरम है पर अचरम नहीं है । ( भगवती श० ३ उ० १) यहाँ पर भी मुख का ढाँकना कहा है बाँधना नहीं कहा ।
पूर्व पक्ष - श्रागमों में मुँह को ढाँक कर बोलने को कहा है, ऐसा प्रापने भगवती सूत्र से स्पष्ट कहा है । तो मुखपत्ती मुँह पर बाँधना स्वतः सिद्ध हो गया ?
उत्तर पक्ष- १. श्रागम में कहीं भी मुंहपत्ती को डोरा डालकर अथवा किसी अन्य प्रकार से भी चौबीस घंटे मुंह पर मुखपत्ती बाँधने का उल्लेख नहीं है । जहाँ पर भी प्रसंग श्राया है, हाथ से अथवा हाथ में ही मुँहपत्ती रखकर मुख को ढाँकने के लिये कहा है, वह भी मात्र बोलते समय अथवा पडिलेहण करते समय के लिये कहा है । यदि बोलते, व्याख्यानादि वांचते समय प्रथवा चौबीस घंटे मुहपत्ती बाँधने का मागम प्रमाण हो तो दिखलाइये ? और यदि महपत्ती बंधी हो तो ढकने का प्रयोजन ही नहीं रहता ।
२. दूसरी बात यह है कि वायुकाय आठ स्पर्शी है और मुख की वाष्प अथवा शब्द चार स्पर्शी है । श्रतः शब्द, वाष्प अथवा दोनों मिलकर भी चार स्पर्शी होने से वायुकाय से अशक्त हैं । इसलिये खुले मुँह बोलने वायुकाय आदि जीवों की हिंसा संभव नहीं है ।
३. यदि खुले मुँह बोलने से निकलने वाले शब्द और वाष्प से वायु कायादि की हिंसा संभव है और बाँधने से बचाव होता है तो अधिष्ठान प्रासन स्थान, नाक एवं मुख तीनों को बाँधना
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