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________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म धर्मश्रद्धा - आप श्वेतांबर जैनधर्मी थे । ग्राप श्री जिनेश्वर प्रभु की पूजा में भी विश्वास रखते थे और उसे कर्मों की निर्जरा का हेतु मानते थे। जिसका निर्देश आपने अपनी रचनाम्रों में स्पष्ट किया है । यथा - ३६६ "कर्म निर्जरा हेतु सुर करें भक्ति उत्साह । राग-दोष ते रहित प्रभु सरब दरब अनचाह ||२|| श्री जैननायक खेमदायक मुकतिलायक पूजिये । गुणरत्न-आगर ज्ञान-सागर सेव नागर हूजिये ||३२|| ( सिमंधर स्वामि छंद) अर्थात् – यद्यपि प्रभु रागद्वेष रहित ( वीतराग ) हैं और किसी भी वस्तु की चाह नहीं रखते ( सर्व परिग्रह से रहित हैं) तथापि देव - देवेन्द्र प्रपनी कर्म निर्जरा करने के लिए आपकी भक्ति करते है । अत: जैनधर्म के नायक, सुख-समृद्धि - शांति को देनेवाले, मुक्ति (मोक्ष- निर्वाण ) प्राप्ति के लिए इनकी पूजा कीजिए | क्योंकि प्रभु गुण रूपी रत्नों के भण्डार हैं, ज्ञान के सागर (सर्वज्ञ) हैं, इस लिए इनकी सेवा - पूजा करके अपना श्रात्म कल्याण करें । (६) श्रावक कवि खुशीराम दुग्गड़ की रचनाएँ [ बीसा प्रोसवाल दुग्गड़ गोत्रीय गुजरांवाला पंजाब निवासी विक्रम बीसवीं शताब्दी ] नाम रचना वि० स० अनु० नाम रचना वि० सं० १९२७ से रामनगर का वर्णन गुजरांवाला १९६१ १३. गौतमस्वामी स्तवन १४. चिंतामणि पार्श्वसाथ स्तवन अनु० १. नेमिनाथ राजमती गाथाएं १६ २. नेमिनाथ राजती बारहमासा (प्रश्नोत्तर गाथा २७ ) ३. जड़ चेतन बारहमासा गाथा २७ ४. चौबीस तीर्थंकरों के अलग-अलग १६३६ स्तवन ५. चौबीस तीर्थंकर पद स्तवन ६. आध्यात्मिक पद ७. सर्वये ८. नेमनाथ जी का बारहमासा पद्य १३, १६४४ ६. चिट्ठी गुरु आत्माराम जी के नाम १६४७ (श्रीसंघ गुजरांवाला की तरफ़ से ) १९४४ Jain Education International १०. उपदेशी बारहमासा गाथा २१ १६५३ ११. महावीर समवसरण पद ११ १२. लाला नरसिंहदास मुन्हानी के संघ की लावणी पद ७ २४. कमलविजयजी की लावणी २५. नेमिनाथ जी पद गाथा ११ परिचय - कवि की कविता के नमूने के लिए यहाँ एक पद दिया जाता है- १५. श्री हीरविजय सूरि स्तवन १६. उपदेशक बीसी पद २० १७. विजयानन्द सूरि चरित्र पद ४७ १८. गुरु प्रानन्दविजय बारहमासा १६. झबोले पद १८ २०- चिट्ठी विजयकमल सरि के नाम १६५७ २१. लावणी कमलविजय जी १६५७ २२. श्री कमलविजय जी को विनतीपत्र १६५७ २३. कमल विजय जी के प्राचार्य पद For Private & Personal Use Only १६५३ १६५३ १६५३ www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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