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________________ पंजाब में जैनग्रंथ लिपिकार ३८७ अभी तक दो-चार मात्र मिले हैं । यद्यपि पंजाब के ग्रंथभंडारों में इस जनपद में रचित ग्रंथों का अभाव है तथापि श्री अगरचन्द नाहटा ने प्रणिधारी जिनचन्द्र सूरि अष्टमशताब्दी समारिका में खरतरगच्छीय साधनों के ग्रंथों की रचनाओं का विवरण दिया है। उस में मात्र पंजाब के ग्रंथभंडारों से ही नहीं, पर भारत के जहां-जहाँ के ग्रंथभंडारों में सुरक्षित ग्रंथ मिल पाये हैं उन सब की सूची दी है। इस सूची में पंजाब के लाहौर नगर में रचित कुछ ग्रंथों का भी उल्लेख किया है-जो अकबर और शाहजहां के समकालीन हैं। पंजाब में की गई ग्रंथों की पांडुलिपियां भी करने की तालिका जो हम आगे देंगे उस से भी खरतरगच्छ के पंजाब में प्रभाव की पुष्टि नहीं होती । इस क्षेत्र में निग्रंथ गच्छ, कोटिक गण, उच्चनागरी शाखा, भटनेरा गच्छ, वणवासी गच्छ, पार्श्वनाथ संतानीय उपकेश गच्छ, गंधारा गच्छ, कोठीपुरा गच्छ, सोपारिया गच्छ, सालकोटिथा गच्छ, कोरंटिया गच्छ, जांगला गच्छ, बड़ गच्छ, नगरकोटिया गच्छ, हिसारिया गच्छ, कंबोजा गच्छ, पश्चात् तपागच्छ तथा लौंकागच्छ एवं ढूढक मत का प्रभाव रहा। ऐसा भनेक प्रमाणों से सिद्ध होता है। पंजाब-सिन्ध में दिगम्बर मत के प्रचार और प्रसार के कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। उन के साहित्य, पट्टावलियों, भट्टारक गद्दियों, इस मत के साधु-प्रार्यकाओं के प्रावागमन, प्रथवा इतिहास के पृष्ठों एवं पुरातत्त्व सामग्री से इस बात की पुष्टि नहीं होती कि दिगम्बर मत का प्रचार इन जनपदों में था। यद्यपि सिकन्दर महान आदि युनानियों के भारत पर आक्रमण के समय युनानी लेखकों के विवरणों से दिगम्बर लेखक अथवा कतिपय पाश्चात्य विद्वान जैन साधुओं के लिए प्रयुक्त शब्दों का अर्थ दिगम्बर साधु और क्षुल्लकादि का करके यह सिद्ध करने की असफल चेष्टा करते हैं कि उस समय यहां दिगम्बर मत के त्यागी साधुसंत थे । जैन साधु के लिये जहाँ निग्रंथ शब्द का प्रयोग मिलता है वहाँ इस का नंगा साधु अर्थ करके और श्वेत वस्त्रधारी साधु का क्षुल्लक अर्थ करके सदा इनका प्रयास रहता है कि इन्हें दिगम्बर मतानुयायी सिद्ध किया जावे । निग्रंथ दो शब्दों= निः+ग्रथ से निष्पन्न हुप्रा है। जिस का अर्थ है-ग्रंथ (गांठ) बिना। परन्तु ग्रंथ का वस्त्र अर्थ कदापि नहीं होता । नंगा तो वस्त्र रहित होता है। इस की चर्चा आगे करेंगे। १३. पंजाब में जैनग्रन्थ लिपिकार अनु० ग्रंथ नाम लिपिकार समय वि० सं० स्थल १. प्राचाराँग मुनि दानीराम १८३५ चैत्र सु० ११ जगरावां २. प्राचारांग लालजी ऋषि १७७१ अश्विन व० १२ कसूर ३. प्राचारांग टब्बा नागरऋषि १९५१ जेठ सु०६ सुनाम ४. प्राचाराँग सुखावबोध । दानाऋषि १७५८ भादों वह रावलपिंडी ५. सूयगडांग बालावबोध श्रावक जयदयाल बरड़ १९२० गुजरांवाला ६. सूयगडांग टबा यति दयाहेम १८५१ जेठ व०११ मालेरकोटला ७ सूयगडांग बालावबोध । बूला ऋषि १७१७ वे० व०१ सामाना ८. सूयगडांग टबा पूज्य माणेक ऋषि १८६५ का० सु० ७ बलाचौर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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