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________________ जैन संस्थाएं ३८१ __ जनकल्याण के सार्वजनिक कार्य - इस संस्था ने पीड़ित मानवता की पुकार को भी सुनो। सन् ईस्वी १९२४ व १६२६ में कई प्रांतों में बाढ़ के कारण घोर आपत्ति आ पड़ी थी। महासभा ने हजारों रुपये का फंड एकत्रित करके वहाँ भेजा । १६२६ ईस्वी में कालाबाग (सीमाप्रांत) में भयंकर आग लगी थी, उस समय विपद्ग्रस्तों की आर्थिक सहायता की गयी। स० ई० १६४२ में बंगाल के पीड़ितों की सहायतार्थ भी महासभा ने अनाज, वस्त्र तथा नकद रुपये भेजे थे। धार्मिक स्थानों में खद्दर पहनकर जाने का भी समाज से अनुरोध किया गया था। वाराणसी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना केलिये धन एकत्र करके महामना मालवीय जी को भिजवाया था। ' समाज सुधार सामाजिक कुरीतियों और फजूलखचियों के विरुद्ध महासभा अपने जन्मकाल से ही आन्दोलन करती आ रही है । खुले अधिवेशनों में इन कुरीतियों और फजूलखचियों को हटाने के लिये प्रस्ताव भी पारित करती आ रही है और उनपर आचरण करने के लिये भी सदा जागरूक रही है । फलत: महासभा ने विवाह-बारात, दहेज प्रादि के सम्बन्ध में कई नियम बनाये। जो समयानुकूल थे और अपव्यय को रोकने वाले थे। सामाजिक एकता को दृढ़ बनाने के लिये सदा सफल प्रयास होते रहे । पाकिस्तान बनने से पहले ई० स० १६४७ तक महासभा की प्रायः यही मुख्य प्रवृत्तियां रहीं। स्वतंत्र भारत में अगस्त १९४७ ई० के बाद महासभा का कार्यालय पहले जालंधर शहर में, फिर अंबाला शहर में स्थापित हुप्रा । १६५४ ई० तक महासभा का सर्वसाधारण अधिवेशन नहीं हो सका । कारण यह था कि पंजाब के विभाजन के फलस्वरूप आबादी का जो तबादला जबरदस्ती जनता को स्वीकार करना पड़ा, उसके प्रभाव से जैन समाज भी अछूता नहीं रहा । हमारे कई परिवार मां की गोद से भी अधिक प्यारी मातृभूमि को छोड़ कर दूर-दूर के राज्यों-तथा बम्बई, मध्यभारत, गुजरात, बंगाल, उत्तरप्रदेश आदि में चले गये । कठिनाइयों व बाधाओं का धैर्यपूर्वक मुकाबिला करते हुए उन्होंने धीरे-धीरे अपने पुरुषार्थ से अपने-अाप को पुनः स्थापित होने में समय व्यतीत किया। परन्तु इन दिनों विद्याथियों की सहायता का कार्य तो अवश्य जारी रहा। पालीताणा में पंजाबी जैन धर्मशाला के निर्माण के लिये आर्थिक सहयोग दिया गया। शिक्षण संस्थानों को ऋणदान-श्री आत्मानन्द जैन डिग्री कालेज अम्बाला शहर तथा श्री आत्मानन्द जैन हाई स्कूल मालेरकोटला को ऋण के रूप में आर्थिक सहायता दी गई । ___ कांगड़ा का वार्षिक अधिवेशन (१९५४ ई०) देश विभाजन के बाद पहली बार कांगड़ा के ऐतिहासिक स्थान पर जहां आज भी वहां के किले के अन्दर एक जैन श्वेतांबर प्राचीन जैन मंदिर है जिसमें प्रतिभव्य और चमत्कारी श्री आदिनाथ (ऋषभदेव) की विशाल प्रतिमा विराजमान है। भारत के बिखरे हुए गुरु प्रात्म और वल्लभ के भक्तों का १८, १६ मार्च १९५४ ई० को जी रानिवासी लाला बाबुराम नौलखा जैन एम. ए. एल. एल बी. प्लीडर की प्रधानता में सम्मेलन हुआ। गुरु वल्लभ स्मारक-कलिकाल कल्पतरु, प्रज्ञान-तिमिर-तरणी, पंजाब केसरी, प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि का २१ सितम्बर १६५४ ई० को बम्बई में स्वर्गवास हो गया। गुरुदेव को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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