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________________ ३७४ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म "मेरी प्रात्मा तो तभी प्रसन्न होगी जब स्व० गुरुमहाराज की अन्तिम इच्छा के अनुसार आप एक जैन गुरुकुल की स्थापना करेंगे। मैंने नियम लिया है कि जब तक एक लाख रुपया गुरुकुल के फंड के लिये जमा न होगा । तब तक मैं दूध तक नहीं पिऊंगा। मैं हजारों मील का सफर करके प्राया हूँ । अनेक तरह के कष्ट उठाकर इस गुरुदेव की पुण्यभूमि पर क्यों पाया हूं ? सिर्फ़ गुरुदेव की अन्तिम इच्छा पूर्ण करने की भावना से । इस भावना को अपने जीवन में पूर्ण करना अपना प्रथम कर्तव्य मानता हूं।" सरस्वती मंदिर की स्थापना पंजाब जैन श्रीसंघ ने अड़सठ हजार (६८०००) रुपया एकत्रित किया और बत्तीस हजार रुपया बम्बई के एक वैष्णव सेठ विट्ठलदास-ठाकुरदास ने भेजा। एक लाख रुपये की धनराशी से गुरुदेव के स्वर्गवास के २८ वर्ष बाद वि० सं० १८८१ माघ सुदि ५ के दिन बड़ी धूम-धाम के साथ गुजरांवाला में स्व. प्राचार्य विजयानन्द सूरि (आत्माराम) जी महाराज के समाधिमंदिर में ही श्री मात्मानन्द जैनगुरुकुल पंजाब की स्थापना की। प्रारंभ में इस के (मानद प्रानरेरी) अधिष्ठाता बिनौली के प्रसिद्ध वकील बाबू कीर्तिप्रसाद जी जैन और सुपरिटेन्डेंट श्री फूलचन्द हरिचन्द दोशी 'महुवाकर', सेक्रेटरो लाला तिलक चन्द जी तिरपेंखिया एवं प्रधान लाला मानकचन्द जी दूगड़ कायम किये गये। इस संस्था का उद्देश्य जैनदर्शन-धर्म के सच्चरित्र विद्वान तैयार करना रखा गया। इस के दो विभाग प्रारंभ किये गये । १. साहित्य मंदिर (College section) और २. विनय मंदिर (High School section) । (१) साहित्य मंदिर-में संस्कृत, प्राकृत, पाली, हिन्दी, गुजराती, उर्दू, बंगाली, अंग्रेजी आदि विविध भाषामों तथा षड्दर्शन का तुलनात्मक अभ्यास, वक्तृत्व और लेखनकला, पत्रपत्रिका संपादन, पुस्तकालय-वाचनालय की व्यवस्था एवं पुस्तक-शास्त्र सूचिकरण आदि के साथ हुन्नर उद्योगों के शिक्षण भी दिये जाते थे। इस प्रकार ज्ञानोपार्जन के साथ-साथ सामायिक, प्रति. क्रमण, जिनमंदिर में देवपूजा-दर्शन तथा गुरुवन्दन का क्रियात्मक अभ्यास भी कराया जाता था। तपस्या भी पर्व दिनों में आत्मसंयम के लिये की जाती थी। सरकारी शिक्षण के साथ-साथ जैनदर्शन, धर्म, कर्मसिद्धान्त (छह कर्मग्रंथ) प्रकरण, न्याय जीवविज्ञान, जैन इतिहास तथा प्राचार का शिक्षण भी अनिवार्य था। किन्तु कालेज के सरकारी अभ्यासक्रम की पढ़ाई करने पर भी विश्वविद्यालय की परीक्षार विद्यार्थियों को दिलाई नहीं जाती थीं। गुरुकुल की अपनी परीक्षाएं ही सब विषयों की होतं थीं। परन्तु कलकत्ता विश्वविद्यालय की जैनन्याय (Philosophy) को न्यायतीर्थ (शास्त्री) परीक्ष में उत्तीर्ण होना अनिवार्य था। इस प्रकार कलकत्ता की न्यायतीर्थ तथा गुरुकुल की स्नातव परीक्षा में उत्तीर्ण विद्यार्थियों को "विद्याभूषण" उपाधि से अलंकृत किया जाता था। प्रवेश पाने की योग्यता साहित्यमंदिर में संस्कृत लेकर मैट्रिक विद्यार्थी प्रवेश पा सकते थे और उन्हें पांचवर्ष क अभ्यास पूरा करके उत्तीर्ण होना अनिवार्य था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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