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मध्य एशिया और पंजाब में जैन धर्म (३) श्री प्रात्मवल्लभ सिलाई स्कूल शाहकोट । (४) श्री प्रात्मवल्लभ सिलाई स्कूल जंडियालागुरु । (५) श्री आत्मवल्लभ शिल्पविद्यालय अमृतसर । (६) जैन सिलाई स्कूल होशियारपुर (७) जैन सिलाई स्कूल सुनाम । (८) जैन सिलाई स्कूल बड़ौत।
१०-श्री प्रात्मानन्द जैन गुरुकुल पँजाब गुजरांवाला पूर्वप्रसंग-गुरुदेव (प्राचार्य श्री विजयानन्द सूरि) ने कहा- “वल्लभ, जानते हो न ! पंजाब में जिनमंदिरों के निर्माण का कार्य अब प्रायः पूर्ण होने पाया है और जिनशासन के पुनरोद्धार में भी गुरुदेव के प्राविाद से बराबर सफलता मिलती जा रही है (शुद्ध जैनधर्म के अनुयायी भी अब पंजाब में काफ़ी हो गये हैं)। अब तो एक काम बाकी है, जिसे हाथ में लेना चाहता हूँ और वह यह है कि "पंजाब में सरस्वती मंदिर (जैन विद्यापीठ) की स्थापना ।" जिसमें दर्शन, धर्म, इतिहास तथा श्रेष्ठता का सही (सत्य) अभ्यास करके आनेवाली पीढ़ियाँ ज्ञान और चरित्र सम्पन्न बनकर दृढ़ श्रद्धापूर्वक जैनधर्मी बने रहें। ऐसा होने से ही जिनशासन के वफ़ादार बनकर जैनधर्म के गौरव को अक्षुण्ण बनाये रख सकते हैं । जैनधर्म के स्वरूप को जाने बिना मंदिरों की पूजा, उपासना, सार संभाल का पंजाब में कई शताब्दियों से प्रभाव हो रहा है और सत्यधर्म को छोड़ बैठे थे।
वाचकवर्य उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थ सूत्र के प्रारम्भ में पहले अध्याय के पहले सूत्र में स्पष्ट कहा है कि--सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्गः ।। तत्त्वार्थ १११
अर्थात्-१. सम्यग्दर्शन (सत्यतत्त्व के स्वरुप को जानने की रुचि एवं सत्यश्रद्धा) २. सम्यग्ज्ञान (वीतराग-सर्वज्ञ-तीर्थंकर प्राप्तपुरुषों द्वारा प्रदर्शित सत्यमार्ग का ज्ञान), ३. सम्यक्चरित्र (सत्यज्ञान के अनुकूल प्राचरण-सच्चरित्र) की प्राप्ति (तीनों की प्राप्ति) ही मोक्ष का मार्ग है। जिनमंदिर-जिनप्रतिमा से सभ्यग्दर्शन की प्राप्ति, पुष्टि और शुद्धि होती है । प्रागम-शास्त्रों का अभ्यास तथा सद्गुरु का सानिध सभ्यग्ज्ञान प्राप्ति के साधन हैं इसकी पूर्ति जैनसरस्वती मंदिरों से अथवा गीतार्थ सद्गुरुओं द्वारा जिनप्रवचन सुनने से ही हो सकती है तथा उपाश्रय-पौषधशाला-स्थानक में सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, तपस्या आदि करके सम्यक्चरित्र के पालन में दृढ़ता तथा गुरुदेव के प्रवचनों के चरित्र में क्रमशः उन्नति करने का अवसर प्राप्त होता है । सम्यग्ज्ञान के बिना श्रद्धा और चरित्र सम्यग नहीं हो सकते ।
स्थानक-उपाश्रय तो पहले से ही विद्यमान थे इसलिए इन को नये बनाने की प्रायः प्रावश्यकता नहीं है। जिनमंदिरों का प्रभाव सा था वह भी लगभग पूरा हो गया है। अब तो जिनशासन के सत्यज्ञान और प्रचार की आवश्यकता है और उसकी पूर्ति सरस्वती मंदिर की स्थापना तथा चरित्रवान, गीतार्थज्ञानी संवेगी साधुत्रों के विचरण ही से हो सकती है। इस अावश्यकता को पूरा करने के लिए अब हम लोगों को कमर कस लेनी चाहिए । प्रायु का क्या भरोसा है ?"
पर इस भावना को पूरी किए बिना ही असमय में वि० सं० १९५३ को गुरुदेव का स्वर्गवास हो गया । अंतिम समय में गुरुदेव ने कहा-"वल्लभ ! जानते हो न ! अभी सरस्वती मंदिर
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