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________________ लुका-टू ढिया (स्थानकवासा) मत ३३५ वि० सं० १५३१ में इस ने भाणा आदि ४४ व्यक्तियों को इस मत की यति दीक्षा लेने की प्रेरणा दी। उन लोगों ने अहमदाबाद में यति (पूज-गोरजी) की दीक्षाएं लेकर इस मत का प्रचार व्यापक रूप से शुरू कर दिया । तब से इस मत का नाम लुकामत पड़ा। क्योंकि इस मत के प्रणेता लुकाशाह थे। लोकाशाह का देहांत वि० सं० १५४१ में हुआ था। प्राचीन जैनधर्म से इसका क्या विरोध था, इस का निर्देश वि० सं० १५८५ में लिखी हुई पुस्तक सिद्धान्त चौबीसी' में मिलता है 'लौकाशाह ने तीर्थ, प्रतिमा, जिनपूजा, सर्वविरति, देशविरति धर्मों की भिन्नता, दान, जन्मकल्याणक उत्सव, पौषध, व्रत, पच्चक्खाण, प्रतिज्ञा काल, दीक्षा, सम्यत्त्व भेद, स्थविराचार आदि का निषेध किया । परन्तु पीछे के लौंकमतियों के यतियोंने, श्रीपूज्यों (चैत्यवासी यतियों के प्राचार्यों) ने अपनी-अपनी गद्दियाँ स्थापित कर यथानुकूल धीरे-धीरे उन्हीं बातों को स्वीकार कर लिया जिन का लौंकाशाह ने विरोध किया था। ये यति और श्रीपूज्य लौकागच्छीय कहलाने लगे । वि० सं० १७०६ में लौंकागच्छीय यति लवजी ने क्रिया उद्धार करके साधु दीक्षा ली और इस मत में लौकाशाह की मान्यता में एक और वृद्धि की। वह यह कि--- इस मत के साधुसाध्वियाँ मुहपत्ति में डोरा डालकर और उस डोरे को दोनों कानों में डालकर चौबीस घंटे मुख पर मुखपत्ति बांधे रखें और इस मत के श्रावक-श्राविकायें सामयिक करते समय मुखपर मुहपत्ति बाँध कर सामायिक करें। लवजी ने लौंकागच्छी य यति बजरंगजी से वि० सं० १६६४ में अहमदाबाद में यति दीक्षा ग्रहण की थी। उसने तथा उस के २१ यति साथियों ने अपने-अपने मुख पर मुहपत्ति बांधकर उसके साथ स्वयमेव साधु की दीक्षाएं लीं और जिनपूजा और जिनप्रतिमा का एकदम निषेध कर दिया। तब इस ने धोषणा की कि हम ने सत्य की खोज कर ली है, नई वस्तु ढंढ ली है। इस से इस पंथ का नाम इंढिया-ढूंढक मत और २२ व्यक्तियों द्वारा स्थापित होने के कारण वाईसटोला के नाम से प्रसिद्ध हुअा । और अपने मुख से ही ऐसा कहने लगे कि हम सत्यशोधक ढढिये अथवा ढढकपंथी हैं । अर्थात् इस ढ ढकमत का प्रचलन अहमदाबाद (गुजरात) में वि० सं० १७०६ में हुआ था । लवजी ढ ढक मत का पहला साध हुअा। लुकामत (लौंकागच्छ) का सर्वप्रथम यति भाणा (भूणा) जी वि० सं० १५३१ में हुअा। जिसने स्वयमेव सर्वप्रथम इस मत में दीक्षा ली। इस बात की पुष्टि लौंकागच्छीय गुरवावली से होती है । उसमें लिखा है कि 1 इसी समय दिगम्बर तारणजी स्वामी ने अपने मत में तारण पंथ की स्थापना की यह पंथ भी मूर्तिपूजा का विरोधी है। 2. पट्टावली समुच्चय भाग १ पृ० २४२ 3. लोकाशाह ने जिनप्रतिमा की पूजा का निषेध किया था परन्तु जिनप्रतिमा का उत्थापन नहीं किया था । पश्चात् लवजी ने जिनप्रतिमा का उत्थापन कर दिया। 4. स्थानकवासी साधु गुजराती मणिलाल कृत 'जैनधर्म नो संक्षिप्त इतिहास अने प्रभु महावीर पट्टावली' (देखें)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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