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दिगम्बर पंथ-एक सिंहावलोकन
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वास्तव में बात यह है कि-विक्रम की छठी शताब्दी में दिगम्बराचार्य कुदकुद ने यापनीय संघ से एक नये पंथ की स्थापना की। इस पंथ की मान्यता है कि एकदम नंगा पुरुष ही पाँच महाव्रत धारण कर सकता है । नंगा पुरुष ही मुक्ति प्राप्त कर सकता है। स्त्री नंगी नहीं रह सकती इसलिये न तो वह पांच महाव्रतधारिणी हो सकती है और न ही मुक्ति पा सकती है । इस मान्यता से तीर्थ करों द्वारा स्थापित चतुर्विधि संघ की मान्यता समाप्त हो जाती है। क्योंकि स्त्री में पाँच महाव्रतों के प्रभाव से साध्वी संघ का अभाव हो गया। साध्वी संघ के अभाव से साधु श्रावक-श्राविका रूप त्रिविध संघ ही रह गया जो तीर्थकर प्रतिपादित चतुर्विधसंघ के सिद्धांत से एकदम विपरीत है ।
६. विक्रम की सत्तरहवीं शताब्दी में अकबर के पुत्र जहांगीर के समय में गृहस्थ बनारसीदास श्रीमाल ने अपने चार गृहस्थ साथियों के साथ इस पंथ में से दिगम्बर तेरहपंथ की आगरा में स्थापना की । इस पंथ ने तीर्थ करों की पूजामों में फल-फूल-मिठाई आदि चढ़ाने का तथा अंगपूजा का निषेध किया। इस पंथ की यह मान्यता भी थी कि वर्तमानकाल में जो दिगम्बर साधु हैं वे भी जैन त्यागमार्ग का पालन नहीं कर रहे हैं। इसलिये ये जनसाधु नहीं है। यह पंथ तीर्थ कर की प्रतिमा को मानता है ।
कुदकुद का मत दिगम्बर बीसपंथ कहलाया। और बनारसीदास का मत बनारसीमत अथवा तेरहपंथ कहलाया।
७. विक्रम की १८वीं शताब्दी में तारणस्वामी ने दिगम्बर पंथ से अपना एक अलग मत स्थापित किया । यह पंथ जिनप्रतिमानिषेधक है और दिगम्बर ग्रंथों को पूज्य मानता है। इस मत के अनुयायी अाज भी मध्यप्रदेश में पाये जाते हैं।
८. इसी प्रकार इस पंथ के अन्य भी कुछ संप्रदाय हैं। जिनमें अनेक प्रकार के छोटे-छोटे मतभेद हैं।
६. विक्रम की इक्कीसवीं शताब्दी में एक काठियावाड़ी काहनजी स्वामी ढूढक साधु ने दिगम्बर मत की एक नई शाखा की स्थापना की है जो एकान्त निश्चय मत को ही स्वीकार करता है । काहनजी स्वामी ने सौराष्ट्र में शत्रु जय तीर्थ के निकटवतीं पर्वत सोनगढ़ में अपना एक आश्रम कायम किया हैं और यह वहाँ वस्त्र सहित ब्रह्मचारी के वेष में रहते हैं। इस पर्वत पर श्री सीमंधर स्वामी का मंदिर तथा दिगम्बराचार्य कुदकुद की मूर्ति स्थापित की है। जिसमें कुदकुद के सीमंधर स्वामी के पास महाविदेह क्षेत्र में जाकर वहां से उनके द्वारा ज्ञान प्राप्त करने का दृश्य चित्रित है । दिगम्बरों की मान्यता है कि महावीर शासन के प्रागमों का विच्छेद हो जाने से कुदकद ने महाविदेह क्षेत्र में जाकर श्री सीमंधर स्वामी से ज्ञान प्राप्त किया और दक्षिण भारत में प्राकर समयसार आदि नये दिगम्बर मत के ग्रंथों की रचना करके अपने मत की स्थापना की। __ आगे चल कर धीरे-धीरे इनकी उपर्युक्त नवीन मान्यताओं के कारण दिगम्बर भाई महावीर शासन से कितने विपरीत चले गये । इसकी यहां संक्षिप्त तालिका देते हैं जिससे पाठक जान पायेंगे कि एक असत्य (जिनागम के विपरीत मात्र एक सिद्धांत के प्रतिपादन करने) से कितना अनर्थ होता है और उस असत्य को सत्य बनाने के लिये अनेक कपोलकल्पित मान्यताओं की
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