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________________ दगम्बर पंथ-एक सिंहावलोकन लिखा है कि---"जर्मनी के डा० जेकोबी सदृश विद्वानों ने जैनशास्त्रों को प्राप्त किया और उन का अध्ययन करके उन को सभ्य संसार के सामने प्रकट भी किया। ये श्वेतांबराम्नाय के अंग आदि ग्रंथ ही हैं और उपर्युक्त विद्वान इन्हीं को वास्तविक जैन श्र तशास्त्र समझते हैं। ईसा पूर्व के मथुरा के सुपार्श्वनाथ स्तूप के खंडहर कंकाली टीले से प्राप्त मूर्ति तथा शिला-लेखों के प्राधार से पुरातत्त्वविज्ञ डा० बूल्हर आदि ने भी श्वेतांबराम्नाय के कल्पसूत्र प्रादि प्रागमों को निर्धाता असली प्राचीन श्रु त सिद्ध कर दिया है। ६. पाश्चर्य तो इस बात का है जिन प्रागमों को सच्चा जनश्रुत मानकर विक्रम की १५-१६वीं शताब्दी तक के दिगम्बर लेखक अपने-अपने ग्रंथों में इन के अनेक संदर्भो को लेकर अपने नये ग्रथों को प्रौढ़ और समृद्ध बनाया है उन्ही को आजकल के कामताप्रसाद, परमानन्द, बलभद्र प्रादि दिगम्बर पंथी विद्वान कल्पित, त्रुटित, कपोलकल्पित कह कर अपने ही पुराने आचार्यों की मान्यता का उपहास कर रहे हैं और ये लोग जिस प्राचीन जैनश्रु त को कल्पित सिद्ध करने के लिये बिना सिर-पैर के ऊटपटांग लिखकर अपनी विद्वता का प्रदर्शन कर रहे हैं इन्हीं आगमनथों के अाधार से इन के संदर्भो को तोड़-मरोड़कर ऋषभदेव से लेकर महावीर तक तीर्थंकरों आदि ६३ शलाका पुरुषों के अधूरे चारित्रों आदि को अपनी मान्यताओं के अनुकूल लिखकर पूर्ण कर रहे हैं । मात्र इतना ही नहीं इनके बड़े-बड़े महारथी स्कालर डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, डा० विद्याधर जोहरापुरकर2 आदि अनेक इतिहासकारों ने भी श्वेतांबर साहित्य से ही उन के प्राचीन प्राचार्य परम्परा को लेकर अपना सीधा संबन्ध महावीर के शासन के साथ जोड़ने का प्रयास किया है। ये लोग श्वेतांबर मान्य के प्राचीन जैनथु त की भर पेट निन्दा करने पर भी इस साहित्य से किसप्रकार अपने पंथ के अनुफल साहित्य रचनाएं करते रहते हैं उसका एक महावीर के चारित्र संबन्धी उदाहरण ही काफी होगा । क्योंकि इस ग्रंथ का यह विषय न होने से तथा विस्तार भय से और अधिक विस्तार से लिखना उचित नहीं समझते । (१) दिगम्बर पंडित नाथुराम प्रेमी दिगम्बर हिन्दी साप्ताहिक जैन मित्र वर्ष ३८ अं० ४ पृ. ६४१ में लिखते हैं कि - "इस में संदेह नहीं है कि श्री भगवान महावीर का विस्तार पूर्वक वर्णन दिगम्बरशास्त्रों में नहीं मिलता। यदि श्वेतांबरों के शास्त्रों में मिलता हो तो उसे संग्रह करने की ज़रूरत है, केवल यह बात ध्यान में रखने की है कि वह महावीरचर्या (दिगम्बर मान्यता के अनुकूल) अरिहंत के स्वरूप को स्थिर रखते हुए उन के उपदेशों (चरित्र) का संग्रह किसी भी साहित्य से करने में हानि नहीं है।" (२) दिगम्बर कामताप्रसाद ने अपनी पुस्तक भगवान महावीर के पृ० ७३में स्वीकार किया है कि __ "यद्यपि हम भगवान महावीर के जीवन को तीन भागों में बटा हुग्रा देखते हैं परन्तु हमारे पास ऐसे प्रमाण नहीं हैं जिन से हम उनके क्रमिक विकास को स्पष्ट बता सकें।" 1. देख कामताप्रसाद, बलभद्र, परमानन्द आदि के भगवान महावीर, जैनधर्म का प्राचीन इतिहास दो विभाग मादि ग्रंथ 2. देखें वीरशासन के प्रभावक प्राचार्य लेखक डा. कस्तुरचन्द तथा डा. विद्याधर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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