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________________ जगद्गुरु श्री हीरविजय सूरि की हस्तलिपि ३१६ दिया । यदि वह आड़े वक्त में सहयोग न देता तो आज महाराणा प्रताप का यश समाप्त हो गया होता । भामाशाह जैनधर्मी थे, धर्म पर उनकी दृढ़ श्रद्धा थी इसलिए वे धर्मवीर थे । महाराणा को अपना सर्वस्व प्रपर्ण करके अनन्य दानवीर होने का परिचय दिया और युद्ध में लड़कर शूरवीरता दिखलाकर युद्धवीर होने का गौरव प्राप्त किया । महाराणा की शान प्रान-बान को कायम रखने के लिए पूरा-पूरा सहयोग देकर देश के लिए बलिदान होने का महादर्श उपस्थित किया। क्योंकि भामाशाह के पूर्वज दिल्ली निवासी थे इसलिए उनकी नस नस में पंजाब की वीरता कूट कूट कर भरी हुई थी। जिसने महाराणा की शान में बट्टा नहीं लगने दिया । धन्य है इस नरवीर को । समस्त्रसघ योगी! श्री महम्मदाबाद नगरे स्वस्त्रिशांश्रादितिनं म्प श्राशजन पुरतः श्री हीरविजयस्तु रिनिनिश्यते श्री श्रहम्मदावादनगरेसम साक साधी आवक यावेका योग्यं यतन श्रीधर्मसा गाईमाझिलावावा माहिजिमले तेल रिश्रमस्तसंघनीमा त्रिगटपल इमिला मिडकदे. वशदथे। मानाननवारणअहम्मदाबाद नीट्स कोसीबाहिरजा बुंगी करत माझ स्ताकरयो। युवई जो एक्ट ला बोलन कर इनो एत्ति राम्रा सिंगहोमबंधन तेल यो। यसरी अनुव नाडालये । तथाधर्मात लावा मद्यमविश पत्रीकरइतिजम एत्री नो मूल गो कतारोपी - सालबिजय पाई बजे एतेन निःशेकपलि कहना पत्री सर्वत्र लिखा मोकले यो त दी - जगद्गुरु श्री हीरविजय सूरि की हस्तलिपि तथा भाषा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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