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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म अकबर मुग़लवंशी बाबर का पोता और हुमायु का पुत्र था। यह तुर्की तैमूरलंग का वंशज था तथा इसका मातृपक्ष चंगेज़खां वंश का था। तैमूरलंग तथा चंगेज़खां दोनों भारतीय इतिहास में कुख्यात अत्याचारी, धर्मांध लुटेरे तथा नरसंहारक रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होंने भारत में तलवार के जोर से मुसलिमधर्म को फैलाने केलिए खून की नदियां बहाई थीं। अकबर पहले पहल अपने पूर्वजों के समान ही कट्टर मुसलमान था। पांच समय नमाज़ पढ़ना, रोज़े रखना और इस्लाम की शिक्षामों का बड़ा पाबन्द था। यह मुसलमान उलमानों (विद्वानों) का बड़ा सम्मान करता था। युद्धबंदियों को मुसलमान बना लेता था। गैर मुसलिमों (हिन्दुओं, जैनों आदि) से जज़िया वसूल करता था। मांसाहारी तथा शिकार का बहुत शौकीन था। वह स्त्रीलम्पट तथा अनेक दुर्व्यसनों का भोगी था। अकबर ने ई. स. १५७६ (वि. सं. १६३६) में दीनेइलाही नाम के एक स्वतंत्र धर्म की स्थापना भी की थी। इससे पहले इसने ई. स. १५७५ (वि. सं. १६३२) में एक इबादतखाना की स्थापना की थी। जिसे हम धर्मसभा कह सकते हैं । इस सभा में इसने सबसे पहले केवल मूसलमानी धर्म के जूदा-जूदा फ़िरकों के मोलवियों को ही दाखिल किया था। अकबर तीन वर्षों तक उनकी प्रतिदिन धर्मचर्चाएं सुनता रहा । मुसलमानों के शय्या-सुन्नी दोनों संप्रदायों के परस्पर विरोधी प्रहारों से अकबर ऊब गया और दोनों पक्षों पर से उसकी अरुचि हो गई। इसके विषय में सम्राट अकबर के दरबार में रहनेवाला इतिहासकार कट्टर मुसलमान बदाउनी लिखता है कि
"There he used to spend much time in the Ibadat Khanah in the Company of learned men and Shaikhas. And especially on Friday nights, when he would situp there the whole night Continually Occupied, in discussing questions of religion, whether fundamental or collateral, The learned men used to draw the sword of the tongue on the bettle---field of Mutual contradiction and opposition, and the autagonism of the sects reached such a pitch that they would call one another fools and hereties":
अर्थात् - "इबादत खाने में बादशाह विद्वानों और शेखों की संगत में बहुत समय व्यतीत करता था और विशेषकर शुक्रवार की सारी रात बैठा रहता था। जबकि मतवातर धार्मिक प्रश्नों की चर्चा चालू रहती थी । फिर चाहे वह मुख्य तत्त्वों अथवा अवांतर विषयों की चर्चा हो । सम्राट उनको सुनने में तल्लीन रहता था। उस समय वे (मुसलमान) विद्वान और शेख परस्पर की विरुद्धोक्तियों तथा आमने-सामने होने वाली युद्धभूमि पर जीभ की तलवारें बैंच लेते थे और उन पक्षवालों की खैचातानी इस हदतक पहुंच जाती थी कि वे एक दूसरे को मूर्ख और पाखंडी कहते थे'।
मसलमानों की इस तकरार के कारण सम्राट ने मुसलमान उलमानों से इकरारनामा (प्रतिज्ञापत्र) लिखवा लिया था कि जब-जब मतभेद हो तब-तब निर्णय करने के लिए कुरान की आयतों (वचनों) के अनुसार परिवर्तन करने का अधिकार बादशाह को है। तत्पश्चात् बादशाह ने ई. स. १५७९ (वि. स. १६३६) में इस इकरारनामे के बाद इन उलमानों को नौकरी से हटा दिया था। कहते हैं कि सम्राट की जब मुसलमान धर्म से श्रद्धा उठ गई तब उसने हिन्दू, जैन, पारसी ईसाई धर्म के विद्वानों को बुलाकर अपनी धर्मसभा में शामिल करना शुरू किया। इस प्रकार जुदाजदा धर्मों के विद्वानों के साथ बैठकर शांति और गंभीरतापूर्वक धर्मचर्चाएं करने लगा। अबुलफ़ज़ल कहता है कि अकबर धर्मचर्चाओं में इतना रस लेने लगा कि उसकी कोर्ट (कचहरी) ही तत्त्वशोधकों का घर बन गई थी। वि. स. १६३६ में यह एकदम मुसलमानीधर्म का विरोधी हो गया था।
1. Al-Badaoni, Translated by W. H. Lowe M. A. Vol II P. 262
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