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________________ मुग़ल सम्राटों पर जैनधर्म का प्रभाव ३ – खरतरगच्छीय प्राचार्य श्री जिनचन्द्र सूरि की लाहौर में सम्राट अकबर से भेंट अकबर के दरबार में प्रोसवाल- वच्छावत गोत्रीय श्वेतांबर जैन धर्मानुयायी कर्मचन्द्र नाम का एक मंत्री था । वह बड़ा दानवीर, शूरवीर, धर्मवीर, चारित्रवान, बुद्धिमान, कुशल राजनीतिज्ञ था । एकदिन सम्राट को कर्मचन्द के मुख से श्री जिनचन्द्र सूरि की प्रशंसा सुनकर उनसे मिलने की उत्कंठा हुई । बादशाह ने अपने फ़रमान द्वारा आपको लाहौर पधारने की प्रार्थना की। फ़रमान पाते ही आप जगद्गुरु श्री हीरविजय सूरि जी से १० वर्ष बाद विक्रम संवत् १६४८ ( ईस्वी सन् १५६१) फाल्गुन सुदि १२ (ईद) के दिन ३१ साधुनों के साथ लाहौर पहुंचे। सम्राट ने यहां पर आपको विक्रम संवत् १६४९ फाल्गुन सुदि में "युग प्रधान" की पदवी दी । आपके साथ प्राये हुए मुनि जिनसिंह को आचार्य पदबी, मुनि गुणविनय और मुनि समयसुन्दर को वाचनाचार्य की पदवी, वाचक जयसोम और मुनि रत्ननिधान को उपाध्याय पदवी से विभूषित किया। इस अवसर पर कर्मचन्द की प्रार्थना पर सम्राट ने एक दिन के लिए जीवहिंसा बन्द कराई । जिनचन्द्रसूरि के प्रभाव से सम्राट ने सौराष्ट्र में द्वारका के जैन- जैनेतर मंदिरों की रक्षा का फरमान वहां के सूबा के नाम भेजा । एकबार सम्राट ने काश्मीर जाने की तैयारी की, जाने से पहले सूरि जी को बुलाकर उनसे धर्मलाभ लिया। उसके उपलक्ष्य में सम्राट ने प्राषाढ़ सुदि ६ से १५ तक सात दिनों के लिए जीवहिंसा बन्द करने का फ़रमान अपने सारे राज्य के १२ सूबों में भेजा । उस फ़रमान में लिखा था कि धीहीरविजय सूरि के कहने से पर्यूषणों के १२ दिनों में जीवहिंसा का निषेध पहले कर चुके हैं अब श्रीजिनचन्द्र की प्रार्थना को स्वीकार करके एक सप्ताह के लिए वैसा ही हुक्म दिया जाता है। खंभात के समुद्र में एक वर्ष तक हिंसा न हो और लाहौर में आज एक दिन के लिए हिंसा न हो। ऐसे फ़रमान भी जारी किये। इस प्रकार जिनचन्द्र सूरि लाहौर में अकबर के सानिध्य में एक वर्ष व्यतीत (वि. सं. १६४६ का चौमासा) करके वि. सं. १६५० में गुजरात की तरफ़ विहार कर गये । हम लिख आए हैं कि वि. सं. १६५० में तपागच्छीय आचार्य विजयसेन सूरि लाहौर में अकबर के वहां पधारे। इससे पहले जिनचन्द्र वापिस लौट चुके थे । २६१ उपर्युक्त वर्णन 'कर्मचन्द प्रबन्ध', जिसकी रचना खरतरगच्छीय क्षे मशाखा के प्रमोदमाणिक्य के शिष्य जयसोम उपाध्याय ने वि. सं. १६५० में विजया-दसमी के दिन लाहौर में की है और उसपर संस्कृत व्याख्या इनके शिष्य गुणविनय ने वि. सं. १६५५ में की है । इसी वर्ष इसी गुणविनय ने इसका गुजराती पद्य में भी अनुवाद किया है, से किया गया है । यह ग्रंथ जिनचन्द्र के वापिस लौटने के बाद उसी वर्ष लिखा गया है। ४ मुगल सम्राटों पर जैनमुनियों के सम्पर्क का प्रभाव अब हम यहां जगद्गुरु तपागच्छीय जैन श्वेतांबराचार्य श्री हीरविजय सूरि इनके शिष्य उपाध्याय शांतिचन्द्र, सवाई विजयसेन सूरि, उपाध्याय भानुचन्द्र, खुशफ़हम सिद्धिचन्द्र के प्रभाव से जो-जो फ़रमान ( श्राज्ञापत्र ) मुग़लसम्राट अकबर से लेकर शाहजहां ने दिये थे वे सब फ़रमान इन तीनों ने समय-समय पर अपने राज्य के समस्त सूबों के नाम जारी किये थे, उनका संक्षिप्त विवरण देते हैं। जिससे पाठक जान पायेंगे कि इन महापुरुषों के सम्पर्क में आने के बाद उन सम्राटों के जीवन में धार्मिक विश्वासों, जीवन ( चारित्र) तथा राजनीति पर जैनधर्म का कैसा प्रभाव पड़ा था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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