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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
किया, उस समय जगद्गुरु जैनाचार्य श्रीहीर विजय सूरि ने आपको उपाध्याय पद देने के लिए गुजरात से वासक्षेप भेजा था।
जगद्गुरु श्री हीरविजय सूरि के समुदाय में ८ उपाध्याय १५० पंन्यास और लगभग २००० साधु मुनिराज थे।
_अकबर के निमंत्रण पर जगद्गुरु ने अपने पट्टधर शिष्य आचार्य विजयसेन सूरि को अकबर के वहां लाहौर जाने का आदेश दिया। गुरु आज्ञा को शिरोधार्य कर विक्रम सं० १६४६ मिति मिगसर शुक्ला ३ के दिन राधनपुर (गुजरात) से पैदल चलकर लाहौर (पंजाब) केलिए रवाना हुए । आप रास्ते में जहां भी पहुंचे, वहां के श्रीसंघों ने, साधु-साध्वियों ने आपका हार्दिक अभिनन्दन किया । पाटण, सिद्धपुर, मालवण, सहोत्तर, रोह, मुंडस्थल, कासद्रा, पाबू, सिरोही, सादड़ी राणकपुर, नाडुलाई, पाली, बगड़ी, जेतारण, मेड़ता, भैरूदा, पुष्कर, अजमेर, नारायण (नरैना) झाक, सांगानेर, वैराट, रिवाडी, विक्रमपुर, झज्जर, महिमनगर, अम्बाला, सिरहंद, लुधियाना, अमृतसर होते हुए लाहौर पहुंचे । लुधियाना के पास पहुंचने पर सम्राट अकबर की तरफ़ से फ़ैज़ी ने आपका शाही सम्मान किया । लुधियाना का जैन श्रीसंघ बड़ा ही हर्षित हुआ। वहां सामैया में हाथी, घोड़े, नगाड़े, शाहीबैंड, पैदल सिपाही प्रादि भेजकर शाही सम्मान से जलूस द्वारा आपका नगर प्रवेश कराया गया। आपके पधारने के उपलक्ष्य में लुधियाना के जैन श्रीसंघ ने अट्ठाई महोत्सव किया।
लाहौर से पांच मील की दूरी पर बसे हुए खानपुर नामक स्थान पर उपाध्याय भानुचंद्र अपने शिष्यों-प्रशिष्यों सिद्धिचन्द्र आदि के साथ स्वागत के लिए आपके पास पहुंच गए। वहां से ही शाही लवाजमे के साथ आपने मुनिमंडल सहित लाहौर की तरफ़ विहार किया। विक्रम संवत १६५० (ईस्वी सन् १५६३) जेठ सुदि १२ को (लुधियाना के प्रवेश महोत्सव से बहुत बढ़-चढ़कर) सम्राट ने आपका लाहौर में शाही सम्मान के साथ नगर में प्रवेश कराया । इस प्रवेश के जलूस में बादशाह और शाहजादा सलीम भी शामिल हो गये थे।
अकबर की प्रार्थना को स्वीकार कर आपके शिष्य मुनि श्री नन्दीविजय ने अकबर के काश्मीर महल (लाहौर) में- जोधपुर के राठोर राजा उदयसिंह, पामेर (जयपुर) के कछवाह राजा मानसिंह खानखाना, अबुलफ़ज़ल, प्राजमखां, जालोर का नवाब ग़ज़नीखां एवं और भी कई राजा, महाराजा, नवाब, अमीर-अमराव तथा विद्वपरिषद के सामने अष्टावधान (जिसमें एक साथ आठ प्रश्नों के क्रमशः उत्तर दिये जाते हैं) किये । सम्राट ने प्रसन्न होकर मुनि नन्दी विजय को खुशफ़हम (सुमति) की पदवी दी। प्राचार्य श्री विजयसेन सूरि जी ने अमृतसर में दसवें तीर्थंकर श्री शीतलनाथ जी की प्रतिमा की अंजनशलाका की। अकबर द्वारा किये गये इस सन्मान को कुछ ब्राह्मण सहन न कर सके । उन्होंने विजयसेन सरि को नीचा दिखाने और अकबर की निगाह से गिराने के लिए वाद करने का चेलेंज दिया। प्राचार्य विजयसेन सूरि ने अकबर के दरबार में विद्वानों की सभा में ईश्वर सृष्टिकर्ता-हर्ता के विषय में गंगा-सूर्य के विषय में ब्राह्मणों से वाद किया और उसमें विजय प्राप्त की। पाप ने इस वाद में भारत के चुने-गिने ३३६ दिग्गज विद्वान ब्राह्मणों को जीता। इससे प्रसन्न होकर अकबर ने आपको 'सवाई' की पदवी दी। जिसका अर्थ होता है – 'वर्तमान दिग्गज विद्वानों से भी सवाया।' आपने दो चौमासे लाहौर में किये और सम्नाट से अनेक फ़रमान (आज्ञापत्र)
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