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________________ मुग़ल सम्राटों पर जैनधर्म का प्रभाव मन्दिर में श्री शीतलनाथ प्रभु की एक विशाल एवं सुन्दर प्रतिमा कालेपाषाण की भी प्रतिष्ठित है । कहते हैं कि यह प्रतिमा प्रागरा की जामा मस्जिद की नींव खोदते हुए धरती से निकली थी । इस मन्दिर में विराजमान सब प्रतिमाओं तथा मन्दिर की प्रतिष्ठा वि० सं० १९४० में तपागच्छीय श्री हीरविजय सूरि ने की थी । श्री शीतलनाथ की प्रतिमा प्रति मनोज्ञ, महाचमत्कारी है । इन की पूजा भक्ति से भक्तजनों के सब मनोरथ पूरे होते हैं । श्री शीतलनाथ के चक्षु प्रतिमा में ही बने हुए हैं । इसलिए ऊपर अन्य चक्ष नहीं लगाये गये हैं । प्रतिमा पद्मासनासीन नग्न है और मौर्य सम्राट सम्प्रति की बनवाई हुई श्वेतांबर मान्यता के अनुकूल है । यह प्रतिमा संगमरमर ( पाषाण) निर्मित ऐसी सुन्दर वेदी में विराजमान है जिस वेदी में रंग-विरंगे पाषाणों से पचेकारी का काम हो रहा है । वेदी में कीमती पत्थर तथा इन्द्रों आदि में सच्चे नग जड़े हुए हैं । तथा इस मंदिर के मूलनायक श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमा भी महाचमत्कारी है । आपने शौरीपुर में, जहां बाइसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ जी के च्यवन (गर्भावतरण ), जन्म, ये दो कल्याणक हुए हैं, उस स्थान पर बने हुए श्वेतांबर जैनमन्दिर की भी प्रतिष्ठा कराई थी । प्राचार्य हीरविजय सूरि से पहले भी अकबर के दरबार में जो नवरत्न इतिहास में प्रसिद्ध हैं; उनमें तत्कालीन नागपुरीय तपागच्छीय श्वेतांबर जैन विद्वान मुनि श्री पद्मसुन्दर जी भी एक थे । जो ३२ हिन्दू मभासदों के पांच विभागों में से प्रथम विभाग में थे । अकबर से आचार्य श्री ही रविजय सूरि की मुलाकात से पहले ही उनका स्वर्गवास हो गया था । इन्हीं का ही शास्त्रसंग्रह अकबर ने हीरविजय सूरि को भेंट किया था जो प्रागरा के श्वेतांबर जैनसंघ के पास रोशन मुहल्ला धर्मशालामन्दिर में सुरक्षित है । प्राचार्य हीरविजय सूरि की मुलाकात से पहले ही अकबर ने 'दीने इलाही' मत की स्थापना कर दी थी। उस समय इस धर्मसभा में मुनि पद्मसुन्दर भी शामिल थे । मुनि पद्मसुन्दर जी के गुरु मुनि पद्ममेरु हमायूं से तथा दादागुरु आनन्दमेरु बाबर से सम्मानित थे । अकबर के शासनकाल में ही मुनि पद्मसुन्दर जी ने 'भविष्यदत्त वरित्र व रायमल्लाभ्युदय काव्यम् और पार्श्वनाथ चरित्र' नामक तीन ग्रंथों की संस्कृत में रचना की थी । २८७ जगद्गुरु श्री हीरविजय सूरि ने पहला चौमासा ( वर्षावास ) श्रागरा में, दूसरा लाहौर में तथा तीसरा फ़तेहपुर सीकरी में किया था। तीन वर्ष तक अकबर को सन्मार्ग में लगाकर सं० १६४२ गुजरात वापिस लौट गये । गुरुदेव की प्राज्ञा से मुनि श्री शांतिचन्द्रोपाध्याय अपने शिष्य मंडल के साथ अकबर के पास ही रहे । उपाध्याय जी ने लाहौर में कृपारस कोष नामक ग्रंथ की रचना की थी जिसमें अकबर के पुण्यकृत्यों (सुकृत्यों) का वर्णन है । आप फ़तेहपुर सीकरी, आगरा, दिल्ली, लाहौर काश्मीर आदि में अकबर के धर्मगुरु रूप में धर्मोपदेश देते रहे । विक्रम संवत् १६४५ में अपने समान विद्वान और अपने सहध्यायी मुनि श्री भानुचन्द्र तथा इनके शिष्य सिद्धिचन्द्र श्रादि को अकबर के पास छोड़कर आप अपने गुरु श्री हीरविजय सूरि जी से मिलने के लिए गुजरात चले गये । अब भानुचन्द्र और सिद्धिचन्द्र दोनों अकबर को धर्मोपदेश सुनाते रहे और उसे भारतीय प्रजा के उत्कर्ष में सहायक कार्य करने के लिए सदा प्रेरणा देकर उत्साहित करते रहे। कई वर्षों तक दोनों मुनि लाहौर में भी अकबर के साथ रहे। मुनि भानुचन्द्र को अकबर ने उपाध्याय पद से विभूषित 1. कवि ऋषभदास कृत हीरसूरि रास (गुजराती) में कवि ने लिखा है कि"पहलुं चौमासु जी श्रागरे, बीजूं लाहौर मांहि । वीजूं चौमासु फतेहपुरे उत्साहे कीधुं ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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