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________________ सामाना २२६ भटनेर (हनुमानगढ़), रानुसर, राहों नगर, बाहड़वास गाँव इत्यादि स्थानों में लिखे गए ग्रंथ हैं (बिजयानन्द मासिक पत्र से संकलित)। सामाना में जैनधर्म प्रभावक जैन ब्राह्मण नीलकंठ सिन्ध देश के पंचपट्टण नगर में प्रसरि नामक एक बड़ा प्रतापी राजा हुआ है। उसने एक बार कुपित होकर ध्वंसलीला मचाते हुए सामानक (सामाना) नगर को चारों तरफ से अपनी सेना द्वारा घेर लिया। वहाँ बहुत से जैनमंदिरों, उपाश्रयों और जनसंघ का विनाश होने तथा विध्वंस होने की अाशंका से रक्षा के निमित्त यहाँ के निवासी नीलकंठ नामक ब्राह्मण ने बीड़ा उठाया। इस समय यह ब्राह्मण जबरदस्त विद्वान और प्रतिभा सम्पन्न व्रतधारी जैनश्रावक भी यहां विद्यमान था। उसे मिथ्यादृष्टियों की वन्दना, स्तुति आदि न करने की प्रतिज्ञा (नियम) थी। फिर भी इस विचक्षण ब्राह्मण ने इस आपत्ति काल में अपनी जान को जोखिम में डालकर नगर और जैनधर्म की रक्षा के लिए निश्चय किया और वह नगर से निकलकर प्रसरि राजा के निकट गया। राजा ब्राह्मणों का भक्त था। उसने नीलकंठ ब्राह्मण को सम्मान-स्वागत पूर्वक नमस्कार किया। नीलकंठ ने श्लोक वचनों से उसे आर्शीवाद दिया "सर्वमंगलालिगी जटामुकुट-मंडितः । मुक्तां भूतये भूयान् महादेवो ऋषभध्वजः ।। (यह श्लोक द्वयर्थक है) अर्थात्-(१) सर्वमंगल स्वरूप, जटाओं रूपी मुकुट से सुशोभित महादेव (देवाधिदेव) श्री ऋषभध्वज (अर्हत् ऋषभ) आपको मुक्ति प्रदाता हों । (२) सर्वमंगलों के लिंग रूप, जटाधारी महादेव (शिव) जो ऋषभध्वज कहलाते हैं पापका कल्याण करें। (इस स्तुति से ऋषभ और शिव दोनों का समावेश हो जाता है।)1 ब्राह्मण नीलकंठ सम्यक्त्वधारी, बारह व्रतधारी जैनश्रावक था इसलिए उसने इस स्तुति द्वारा अपने इष्टदेव देवाधिदेव अर्हत् ऋषभ की स्तुति की। परन्तु प्रसरि शैव था इसलिए उसने अपने इष्टदेव शिव की स्तुति समझी। आशीर्वादात्मक स्तुति सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ । प्रसरि ने पूछा-पंडितजी ! आप कहाँ से आये हैं ? पंडितजी ने कहा--सूर्य के मंडल से । राजा ने पूछावहां क्या है ? पंडितजी ने कहा कि वहां सूर्य के दो स्त्रियाँ हैं। एक श्यामांगी छाया और दूसरी गौरांगी कान्ति । एक बार समीप स्थित कान्ति ने सहस्ररश्मि अंशुमाली (सूर्य) से कहा "हे छाये ! बदरेऽत्मा कि रण्डेऽस्मि धर्म-द्युति । ब्रुषे नाम कुतो रिपोस्त्वमपि में कान्तेः सपत्नि कुतः ।। किं श्यामा स्थुयगूहितास्मि बलतः के पूर्व दिक्याथि वैः । श्यामांग प्रसरै प्रताप शिखिना पलुष्ट-जटिन-दिवम्" ॥१॥ इस चमत्कारपूर्ण नव्य काव्य को सुनकर राजा प्रसरि प्रसन्न हुमा। उसने नीलकंठ को इच्छित वर मांगने को कहा । नीलकंठ ने कहा-- राजन् ! अपने देश को बापिस लौट जाइये और इस हिंसक प्रवृत्ति का त्याग कर दीजिए। 1. देखें इसी ग्रन्थ के अध्याय एक में ऋषभ और शिव की तुलना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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