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________________ २१८ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म वि० सं० ११६६ से १२३२ परमार्हत् कुमारपाल राजा (पाटण-गुजरात से) संघ सहित यहाँ यात्रा करने पाया । वि० सं० १३२५ से १३५१ के बीच में श्री जिनप्रभ सूरि संघ के साथ यहां यात्रा करने आये । वि० १३ वीं शताब्दी में श्री मुनिरत्नसूरि, श्री मुनिशेखर सूरि उच्चनगर से संघ सहित यहां यात्रा करने आये। वि०सं० १३२० में मांडवगढ़ के महामंत्री पेथड़शाह ने तप गच्छीय जैनाचार्य श्री धर्मघोष सूरि के उपदेश से भारत के जुदा-जुदा नगरों में ८४ जैनमन्दिरों का निर्माण कराया । यहाँ भी संघ के साथ यात्रा करने आये और एक विशाल जनमदिर का निर्माण कराया। वि० सं० १३७१ में तिलंगदेश के स्वामी समराशाह सघपति ने पाटन से यहां की यात्रा की। वि० सं० १६६४-१६६८ में मुनि श्री विजयसागर गणि यहाँ यात्रार्थ पधारे। आपने उस समय यहां पर पाँच जैनमन्दिरों तथा पांच स्तूपों का उल्लेख किया है । वि० सं० १६२७ में प्राचार्य श्री जिनचन्द्र सूरि ने अपने शिष्यों के साथ यहाँ की यात्रा की। उस समय आपने यहाँ चार स्तयों का उल्लेख किया है। खरतरगच्छीय प्राचार्य श्री जिनशिवचन्द्र सूरि ने वि० सं० १७७८ में यात्रा की। वि० सं० १६४० के लगभग जगद्गुरु प्राचार्य श्री हीरविजय सूरि ने अपने शिष्य परिवार के साथ यहाँ की यात्रा की । आपके साथ मुनि पद्मसागर के शिष्य मुनि गुणसागर भी पधारे थे। वि०१८वीं शती में यहाँ मुनि सौभाग्यविजय जी यात्रा करने पधारे उस समय मापने यहाँ तीन स्तूपों का उल्लेख किया है। वि०१६ वी २० वीं शताब्दी में भी अनेक यात्री संघ पधारे। सद्धर्मसंरक्षक मुनि बुद्धिविजय (बटेराय) जी ने चार बार यहाँ के तीर्थ की दिल्ली संघ के साथ यात्रा की । प्राचार्य श्री विजयानन्द सरि, प्राचार्य श्री विजयकमल सूरि, उपाध्याय श्री वीर विजय जी, प्रवर्तक श्री कान्ति विजय जी, शांतमूर्ति श्री हंस विजय जी, प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जी, मुनि श्री दर्शन विजय जी त्रिपटी, प्राचार्य श्री विजयसमुद्र सूरि जी प्रादि अनेक मुनिराजों तथा यात्रीसंघों ने इस तीर्थ की यात्रा करके कर्मों की निर्जरा की है । साध्वी समुदाय भी यहाँ पधारते रहते हैं। __इस प्रकार जन परम्परा, अनुश्रुति, तथा इतिहास में अनेक तीर्थ करों, चक्रवतियों, केवलियों महामनियों श्रावक-श्राविकाओं, धर्मवीरों, कर्मवीरों का इस तीर्थ के साथ सम्बन्ध रहा हैं। दिगम्बरों की मान्यता रक्षा-बन्धन पर्व-दिगम्बरों की अनुश्रुति के अनुसार रक्षाबन्धन अथवा श्रावणी महापर्व जिस घटना के कारण प्रचलित हुआ वह हस्तिनापुर में ही घटी। इस अनुश्रुति के अनुसार 1. यशःपालकृत मोहपराजय-१-३८ 2. पेयड़ शाह ने जैनमंदिर बनवाये, उस नामावली में हस्तिनापुर का भी उल्लेख है यथा हस्तिनापुर-देपालपुर-गोगपुरेषु च । जयसिंहपुरे निम्बस्थूराद्री तदधोभूवि ॥ इत्यादि देखें इस ग्रंथ के लेखक द्वारा लिखित परमपावन श्री हस्तिनापुर महातीर्थ पृष्ठ ६७ टिप्पणी ५६ 3. पंच नमूथूभ थापना, पंच नमुजिनमूर्ति ॥१५॥ जे मि तीरथ सांकल्या, नयणि निहाल्या तेह ॥ १६ ॥ (प्राचीन तीर्थमाला संग्रह भाग १ पृ० १२) 4 स 6. देखें इस ग्रब के लेखक कृत परमपावन श्री हस्तिनापुर महातीर्थ पृ. ६८-६९ टिप्पणी ६२ प्रादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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