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________________ हस्तिनापुर में जैनधर्म २१७ हुआ होगा। ऐसे स्थानों पर पाँच स्तूपों का निर्माण किया होगा। जिनप्रभ सूरि के समय में पांच जैनमन्दिर और पाँच जैन स्तूप विद्यमान थे। वर्तमान में इन मन्दिरों में से यहाँ एक भी विद्यमान नहीं है और इन स्तूपों में से मात्र एक स्तूप विद्यमान है जहाँ श्री ऋषभदेव प्रभु ने वर्षीयतप का पारणा किया था। ये सब मन्दिर कब और कैसे ध्वंस हुए इसका पता नहीं। संभवत: अन्य स्तूप दिगम्बरों के अधिकार में हैं और उन्होंने उन्हें तोड़कर चबूतरे बनाकर वहाँ स्वस्तिक बना दिये हैं। पहाँ पानेवाले कुछ जैन यात्री संघों का वर्णन - हम लिख पाये हैं कि श्री हस्तिनापुर शास्त्रोक्त, आगमोक्त एवं ऐतिहासिक एक महान तीर्य है। एवं २५॥ प्रार्य देशों में एक प्रमुख प्रार्य देश की राजधानी है। यहाँ अनेकानेक विभूतियों द्वारा पवित्र हुई धरती की स्पर्शना के लिये, यात्रा करने के लिये सदा-सर्वदा अनेक चतुर्विध संघ, श्रमण संघ तथा श्रावक-श्राविकायें प्राते रहे हैं और प्राजकल भी आते रहते हैं। सारे देश के कोने-कोने से यहाँ तपस्वी साधु-साध्वी, श्रावक-श्रविकाएं वैसाख सुदि ३ को पाकर वर्षीय तप का पारणा करते हैं कारण यह है कि श्री ऋषभदेव का वर्षीय तप का पारणा यहीं पर हुआ था । (१) विक्रम से ३८६ वर्ष पूर्व श्री यक्ष देव सूरि ५०० साधुनों के साथ मरुधर से विहार कर पूर्वदेश की तीर्थ यात्राएं करते हुए हस्तिनापुर पधारे । यहाँ की यात्रा करके रास्ते में अन्य तीर्थों की यात्रा करते हुए मरुदेश वापिस चले गये। (२) विक्रम से २४७ वर्ष पूर्व श्री सिद्ध सूरि पांचाल देश में चौमासा करने वाले मुनियों के लिए अच्छी व्यवस्था करके ५०० मुनियों के साथ श्री हस्तिनापुर तीर्थ की यात्रा करने पधारे बाद में मरुदेश की तरफ़ चले गये । (३) विक्रम संवत् १६६ से २१८ प्राचार्य श्री रत्नप्रभ सूरि चतुर्थ मथुरा में बौद्धों के प्राचार्य को शास्त्रार्थ में हराकर और उसके अनुयायियों को जैनधर्मी बना कर वहाँ से विहार कर हस्तिनापुर में पधारे और अनेक मुनियों के साथ यहां की यात्रा करके अन्यत्र चले गये । (४) वि० सं० २१८ से २३५ प्राचार्य श्री यक्षदेव सूरि चतुर्थ लाहौर में चतुर्मास करके अपने मुनिमंडल के साथ यहाँ यात्रा करने पधारे । (५) विक्रम संवत् २३५ से २६० प्राचार्य की कक्क सूरि चतुर्थ ने अपने मुनिमंडल को साथ लेकर डमरेलपुर (सिंध) में श्रेष्ठिवर्य महादेव के द्वारा निकाले हुए श्री सम्मेतशिखर जी के बहुत बड़े संघ सहित यहाँ की यात्रा को और यहाँ बड़ा भारी महोत्सव किया। इस प्रकार अनेकानेक यात्रीसंघ यहाँ की यात्रा करने आते रहते हैं । कतिपय का परिचय इस प्रकार है1. केवलोत्पत्ति-निर्वाण यत्राभूतां महात्मानाम् । तानि सर्वानि तीर्थानि वन्दितानीहवन्दिते ॥५०॥ जन्म-निष्क्रमण ज्ञानोत्पत्ति-मुक्तिग मोत्सवाः । वैयस्त्यात् क्वापि सामस्त्याज्जिनानां यत्र जज्ञिरे ॥५१॥ अयोध्या-मिथिला-चम्पा-श्रावस्ती-हस्तिनापरे । कौशाम्बी-काशी-काकन्दी-काम्पिल्यै भद्दिलाभिधे ।।५२॥ (विविध तीर्थकल्पे शव जय तीर्थकल्पे पृ०२ जिनप्रभसूरी कृत) 2. 2 से 6. देखिये भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास (मुनि ज्ञानसुन्दरजी कृत तथा इस ग्रंथ के लेखक द्वारा लिखित परमपावन श्री हस्तिनापुर महातीर्थ पृ० ६५-६६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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