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________________ हस्तिनापुर में जैनधर्म २१५ करना चाहिए | इस विचार से उसने दूसरे दिन श्रपने पुत्र का राज्याभिषेक कर दिया। अपने सगेसम्बन्धियों से अनुमति लेकर लोही यदि लेकर गंगा किनारे रहने वाले तापसों के पास दीक्षा लेकर दिशा प्राक्षक' हो गया और निरंतर छह टंक उपवास का व्रत ले लिया । इस प्रकार अनेक प्रकार के तप करते हुए उसने विभंग ( कुश्रवधि) ज्ञान प्राप्त कर लिया। शिव राजर्षि को इस ज्ञान से सात द्वीप और सात समुद्र दिखलाई पड़े । हस्तिनापुर में यह बात फैल गई । उसी बीच महावीरस्वामी यहाँ आए, उनके शिष्य इन्द्रभूति गौतम गणधर भिक्षा लेने नगर में गये । उन्होंने वहाँ शिव राजर्षि की कही सात समुद्र की बात सुनी। भिक्षा से लौटने पर गौतम ने भगवान महावीर बात पूछी - - "भगवन ! शिव राजर्षि कहता है कि विश्व में सात ही द्वीप हैं और सात ही समुद्र हैं । यह बात कैसे संभव है ?" इस पर भगवान महावीर स्वयंभूरमण समुद्र तक असंख्य द्वीप फरमाया--- "हे गौतम ! यह असत्य है । इस तिर्यकलोक में और असंख्य समुद्र है ।" यह बात भी नगर में सर्वत्र फैल गई । यह सुनकर शिवराज ऋषि को शंका हो गई । तत्काल उसका विभंगज्ञान नष्ट हो गया । फिर उसे ज्ञान हुआ कि भगवान महावीर वीतराग-सर्वदर्शी - सर्वज्ञ तीर्थ कर हैं । इसलिए उसने भगवान के पास नाने का निश्चय किया । तब यह सहस्राम्रवन में प्रभु महावीर के पास आया और उन्हें वन्दन करके योग्य स्थान पर बैठ गया । समवसरण में प्रभु ने शिव राजर्षि और महती सभा को उपदेश दिया चौदह राजलोक (ऊर्ध्व, मध्य, श्रधो तीन लोक) का स्वरूप बतलाया । निर्ग्रथ प्रवचन सुनकर राजर्षि परम संतुष्ट हुआ और उठा, हाथ जोड़कर नतमस्तक होकर भगवान से सविनय प्रार्थना करते हुए कहा - भगवन ! आपका वचन सर्वथा सत्य है - यथार्थ है । मैं निर्ग्रथ प्रवचन पर श्रद्धा रखता हूं । प्रभो ! मुझे भी निर्ग्रथ दीक्षा देकर मोक्षमार्ग का पथिक बनाइये । प्रभु ने स्वीकार किया । शिव राजर्षि ने पंचमुष्टि लोच करके भगवान के पांच महाव्रतों को धारण किया— स्वीकार किया, दीक्षा लेने के पश्चात् श्रागमों का अभ्यास किया और सर्वत्र विचर कर जैनधर्म का प्रसार किया । कठोर तप करके चार धाती कर्मों का क्षयकर केवलज्ञान - केवलदर्शन प्राप्त कर सर्वज्ञ बना । जीवन के अन्तिम श्वासोच्छवास तक सर्वत्र विहार कर भव्यजीवों को निर्ग्रथ प्रवचन का पान कराया। सर्वत्रिक जैनधर्म का प्रसार कर सर्वकर्मों को क्षयकर निर्वाण प्राप्त किया 12 (२३) पोट्टिल आदि प्रनेक प्रात्मार्थियों की दीक्षाएं - इसी यात्रा में भगवान से पोट्टिल ने भी निर्ग्रथ दीक्षा ग्रहण की। उसका जन्म भी हस्तिनापुर में हुआ था । इसकी माता का नाम भद्रा था। इसकी बत्तीस पत्नियाँ थीं सब प्रकार ऋद्धि-समृद्धि, पत्नियाँ परिवार आदि परिग्रह का त्याग कर दीक्षा लेने के बाद वर्षों तक शुद्ध चरित्र का पालन करते हुए सतत सर्वत्र विचरण करते हुए जैनधर्म का प्रचार और प्रसार किया । अन्त में एक मास का अनशन करके अनुत्तर विमान में देवगति प्राप्त की । " 1. इस पाठ की टीका करते हुए प्रभयदेव सूरी ने लिखा है "दिसायो क्खिणो त्ति उदकेण दिशः प्रक्षये ये फलपुष्पादि समुचिन्वति ॥" ( भगवती सूत्र सटीक पत्र ५५४ ) भगवती सूत्र शतक ११ अ० । अणुत्तरोववाइय (अंतगढ- श्रणुत्तरोववाइय मोदी संपादित पृष्ठ ७०५३ ) 2. 3. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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