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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म श्रमणियों ने सदा-सर्वदा जैनधम का पलवलित किया। इस के बाद का यहाँ का इतिहास उपलब्ध नहीं है । अतः इस सम्बन्ध में जब तक अन्य प्रमाण न मिलें तब तक हम यह मान सकते हैं कि लगभग ३०० वर्षों तक इस जनपद में श्वेतांबर जैनश्रमणों का आवागमन बन्द रहा होगा, जिससे जैनधर्म का प्रचार रुक जाने से तथा दूसरे कारणों से ह्रास होना प्रारंभ हो गया । हाँ विक्रम की वीसवीं शताब्दी में सद्धर्मसंरक्षक सत्यवीर मुनि श्री बुद्धिविजय जी (बूटेरायजी) तथा नवयुग निर्माता, न्यायांवोनिधि, जैन श्वेतांबर तपागच्छीय आचार्य श्री मद्विजयानन्द सूरि (आत्माराम) जी ने इस जनपद में तीर्थंकर भगवन्तों के विस्तृत सत्यधर्म की पुनः ज्योति प्रगटाई | इस विषय में इन महापुरुषों की जीवनी पर प्रागे प्रकाश डालेंगे । इस बीच में ढूंढिया मत जो प्राजकल स्थानकवासी मत के नाम से प्रसिद्ध है, (जिस मत के साधु-साध्वियाँ दीक्षा लेने के समय से लेकर जीवन के प्रतिम श्वासों तक अपने मुख पर कपड़े की मुंहपत्ति में डोरा डालकर बाँधे रहते हैं) इस जनपद में प्रसार पा गया। यह मत जैन तीर्थकरों की प्रतिमानों तथा मंदिरों को नहीं मानता परन्तु अपने साधुयों के चित्रों तथा उनके देहांत के बाद उनकी चिता स्थानों पर उनकी समाधियाँ बनाकर श्रद्धा और भक्ति पूर्वक पूजा भक्ति करता है । जिनप्रतिमा की पूजा, उपासना तथा जैन तीर्थों की यात्रा आदि का निषेध करता है । इस मत के अनुयायी सारे जनपद में बहुत संख्या में विद्यमान हैं ।
ईसा पर जैनधर्म का प्रभाव
Jesus Christ (ईसा) के विषय से उसकी १३ से ३० वर्ष की मध्यावधि के इस १८ वर्षों की आयु के विषय में बाईबल सर्वथा मौन है। किसी को भी ज्ञात नहीं कि इतने वर्षों तक ईसा कहां रहा और उसने अपना यह जीवन कैसे व्यतीत किया । ईस्वी १६ वीं सदी के अंतिम चरण में रूसी यात्री निकोलाई नोटाविच ( Nicolai Notavich ) को काशमीर - तिब्बत की सीमा पर लद्दाख के बौद्ध लामाग्रों से सुरक्षित हस्तलिखित कुछ ऐसी दस्तावेजें मिली थीं जिनमें ईसा के इन १० वर्षों के निवास तथा कार्यकलाप का विवरण मिला है। उसने लिखा है कि इस अवधि में ईसा भारत आया और यहाँ उसने जैन, वैदिक तथा बौद्ध साहित्य का अभ्यास उन-उन धर्मानुयायियी गुरुमों के पास रह कर किया। तत्पश्चात् उसने अपने सिद्धांतों का भारत तथा इसके बाहर इस्राईल आदि में प्रचार प्रारंभ किया ।
निकोलाई नोटाविच के ग्रंथ के आधार से A. Faber Kaiser ने Jesus died in Kashmir ( ईसा की मृत्यु काशमीर में हुई ) नामक पुस्तक में (जिसे Sphere book Ltd. London ने प्रकाशित किया है और इस पुस्तक का विक्रेता Indian book house है । ) इन १८ वर्षों के ईसा के जीवन वृतांत का विवरण दिया है ।
इस साहित्य के ग्राधार से अंग्रेजी मासिक Mirror ( मीरर ) अंक दिसम्बर १६७८ में एक लेख पृष्ठ १०९ से १०७ में Jesus died in Kashmir ( ईसा की मृत्यु काशमीर में हुई) प्रकाशित हुआ है। जिसमें ईसा के जीवन के इन १८ वर्षों के कार्यकलाप का परिचय दिया है । उसमें लिखा है कि ये १८ वर्ष ईसा ने भारत में बिताये तत्पश्चात् इस्राईल आदि गया वहाँ उसने ईसाई मत का प्रचार प्रारंभ किया और अन्तिम समय उसकी काश्मीर में मृत्यु हुई तथा उसे वहीं दफना दिया गया । लिखा है-
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