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वैराट
सिन्धु-सौवीर में जैनधर्म
१७ विहार करने से साधुओं के दर्शन (सम्यक्त्व) की शुद्धि होती है। महानाचार्यों आदि की संगति से वे अपने आपको धर्म में स्थिर रख सकते हैं तथा विद्यामंत्रादि की प्राप्ति कर सकते हैं । शुद्ध वस्ति (निवासस्थान) व शुद्ध आहार-पानी की सुविधाएं प्राप्त हो सकती हैं। यहां तक बतलाया गया है कि निग्रंथ-निर्ग्रणियों को नाना देशों की भाषाओं में कुशल होना चाहिये । जिससे वे प्रत्येक देश के लोगों को उनकी भाषा में उपदेश देकर सन्मार्ग में अग्रसर कर सकें। प्राचीन काल से ही जैन साधुसाध्वियाँ (निग्रंथ-निर्ग्रणियां) सर्वत्र घूमते रहते हैं। ये अपना कोई मठादि स्थापित नहीं करते। फलतः उन्हें देश के कोने-कोने से साक्षात् परिचय बना रहता है। उनकी पट्टावलियां, विविध-प्रशस्तियां आदि प्राचीन तथा नवीन सच्चे इतिहास के सर्जन के अचूक साधन हैं । हम लिख आये हैं कि जैन श्रमण-श्रमणियों ने अपनी जान को हथेली में रखकर भी सद्धर्म का सर्वत्रिक प्रचार व प्रसार किया है।
जैन शास्त्रों में भारत में २५।। आर्य देशों (जनपदों) का वर्णन मिलता है । जिनका विवरण इस प्रकार है। . जनपद
राजधानी जनपद
राजधानी १. मगध
राजगृह १४. शांडिल्य
नन्दीपुर २. अंग चम्पा १५. मलय
भद्दलपुर ३.बंग
ताम्रलिप्ति
१६. मत्स्य ४. कलिंग कांचनपुर १७. अत्स्य (अच्छ)
वरुणा ५. काशी वाराणसी १८. दशार्ण
मृतिकावती ६. कोशल
१६. चेदी
शुक्तिमति ७. कुरु गजपुर (हस्तिनापुर) २०. सिन्धु सौवीर
वीतभयपत्तन शौरीपुर २१. शूरसेन
मथुरा ६. पांचाल काम्पल्यपुर २२. भंगि
पावा १०.जांगल अहिछत्रा २३. वट्टा (वर्त)
मासपुरी ११, सौराष्ट्र द्वारवती (द्वारिका) २४. कुणाल
श्रावस्ति १२. विदेह मिथिला २५. लाढ़
कोटिवर्ष १३. वत्स
कौशाम्बी । २५।।. केकयार्द्ध (पंजाब) श्वेतंबिका (स्यालकोट) सम्राट सम्प्रति मौर्य के समय तक ये २५॥ प्रार्यदेश माने जाते थे। जहां जैनसाधु साध्वियों के लिए विहार सुलभ था।
उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि (१) कुरुक्षेत्र जिसकी राजधानी हस्तिनापुर थी, (२) सिन्धु-सौवीर जिसकी राजधानी वीतभयपत्तन थी (गांधार जिसकी राजधानी क्रमशः तक्षशिला अथवा पेशावर थी तथा काश्मीर जो उस समय गांधार का ही एक भाग था इन सब का समावेश सिंधु देश में था) भी प्रार्यदेश थे । एवं (३) केकय (पंजाब) जिसकी राजधानी श्वेतंबिका (स्यालकोट) थी। यह भी प्राधा पार्यदेश कहलाता था।
इन जनपदों का विवरण इस प्रकार है१. गांधार और काश्मीर इनका परिचय विस्तार पूर्वक हम पहले लिख पाये हैं ।
साकेत
८. कुशावर्त
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