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________________ कांगड़ा (हिमाचल) में जैनधम का मंदिर प्रति प्राचीन भौर बहुत प्रसिद्ध है, जहाँ दूर-दूर के यात्रीगण विशेषकरके नवरात्रों में देवी के दर्शन के लिए आते हैं । काँगड़ा जिला - इसके पूर्वोत्तर में हिमालय का सिलसिला, जो तिब्बत देश से इसे अलग करता है, दक्षिण पूर्व में बसहर और विलासपुर, दक्षिण पश्चिम में चक्की नामक छोटी नदी, बाद गुरदासपुर जिले का पहाड़ी भाग श्रौर चंबा की सीमा है । काँगड़ा जिला का क्षेत्रफल ६०६६ वर्गमील है। जिले में मैदानी और पहाड़ी देश दोनों हैं। कांगड़ा जिले में होकर चिनाब ( चन्द्रभागा), रावी और व्यास (पिपाशा) नदियाँ निकलती हैं व्यास कूल के उत्तर रोहतंग पहाड़ियों से निकलकर लगभग ५० मील दक्षिण-पश्चिम में बहने के बाद मंडी राज्य में प्रवेश करके उसे लांघती हैं। पश्चात् काँगड़ा की सम्पूर्ण घाटियों में बहती हुई पंजाब के मैदान में जाती हैं । । ५५ कांगड़ा का पूर्व इतिहास भी इस पुस्तक में संक्षिप्त रूप से इस प्रकार लिखा है “काँगड़ा कस्बा – पूर्वकाल में कटौच राज्य की राजधानी था। कटोच राजकुमार ऐतिहासिक काल से लेकर अंग्रेजों के भारत आने के समय तक कांगड़ा की घाटी पर हकूमत करते रहे हैं । सन् ईस्वी १००६ में गज़नी के महमूद ने हिन्दुओंों को पेशावर से परास्त करके नगरकोट का किला ले लिया और वहाँ के मंदिरों में से बहुत सोना, चांदी और रत्नों को लूटकर अपने साथ ग़ज़नी ले गया। परन्तु ३५ वर्ष बाद पहाड़ी लोगों ने दिल्ली के राजा की सहायता से मुसलमानों से किला छीन लिया । ईस्वी सन् १३६० में फिरोजशाह तुगलक ने कांगड़ा पर चढ़ाई की। राजा रूपचन्द्र ने उसकी प्राधीनता स्वीकार कर ली और अपने राज्य पर पूर्ववत कायम रहा । परन्तु मुसलमानों ने फिर एक बार मंदिरों का धन लूटा । सन् ईस्वी १५५६ को मुग़ल बादशाह अकबर ने कांगड़ा किले को ले लिया । उस समय के राजा धर्मचन्द्र ने अकबर को कर देना स्वीकार कर लिया और अपने राज्य पर कायम रहा । मुगल बादशाहों के समय में काँगड़ा की जनसंख्या बहुत अधिक थी । सन् ईस्वी १७७४ में सिख प्रधान जयसिंह ने छल से कांगड़े किले को ले लिया और सन् ईस्वी १७८५ में कांगड़ा के राजा संसारचन्द्र [ द्वितीय] को किला वापिस लौटा दिया । ईस्वी सन् १८०५ के पश्चात् तीन वर्ष तक गोरखों की लूट से देश में अराजकता फैली रही, पश्चात् सन् ईस्वी १८०६ लाहौर के राजा शेरे पंजाब रणजीतसिंह ने गोरखों को परास्त कर संसार चन्द्र [द्वितीय] को पुनः राज्यधिकारी बनाया । सन् ईस्वी १८२४ में संसारचन्द्र की मृत्यु हो गई । पश्चात् उसका पुत्र अनरुद्धचन्द्र राज्य का अधिकारी बना । चार वर्ष पीछे अनरुद्ध उदास होकर अपना राज्य सिंहासन छोड़कर हरिद्वार चला गया । तब रणजीतसिंह ने आक्रमण करके राज्य का एक भाग ले लिया । किले पर अनरुद्ध के पुत्र रणवीर का राज्य रहा । सन् १८२६ में रणजीत सिंह ने किले पर भी अधिकार कर लिया। इस प्रकार कांगड़ा में कटौच वंश के राज्य का अन्त हो गया । सर ए० कनिंघम ने अपनी प्रकिालोजिकल रिपोर्ट सन् १८७२-७३ बा० ५ में काँगड़ा के कटीच जाति के राजपूत राजाश्रों की राजवंशावली इस प्रकार दी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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