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गांधार-तक्षशिला प्रदेश में जैनधर्म जाऊंगा, जहाँ प्रभु आकर ठहरे हैं । प्रातःकाल होते ही जब बाहुबली अपने परिवार और समस्त मन्त्री-सामंत आदि के साथ उद्यान में पहुंचा तब प्रभु अन्यत्र विहार कर गए थे। बाहुबली को प्रभु के दर्शन न होने से असह्य दुःख हुआ और उसे अपने प्रमाद के लिए बहुत पश्चाताप हुआ । जिस स्थान पर प्रभु रात्रि के समय कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानरूड़ खड़े रहे थे, वहां उनके दोनों चरणों के निशान पड़े थे । अंकित चरण चिन्हों पर बाहुबली ने प्रभु के चरणबिम्ब स्थापित कर पाठपीठ बनायी उस पर धर्मचक्र की स्थापना करके धर्मचक्र तीर्थ को स्थपित किया। विश्व में तक्षशिला में सर्वप्रथम धर्मचक्र-तीर्थ प्रकाश में आया।
२. तक्षशिला में राज्यसत्ता के लिए भरत और बाहुबली दोनों भाईयों में घोर युद्ध हुआ इस प्रसंग का वर्णन करते हुए प्राचार्य विमल सूरि अपने पउम चरियं ग्रंथ में लिखते हैं कि
"उसभ-जिणस्स भगवओ पुत्त-सयं चन्द-सूर-सरिसाणं । समणत्त पडिवन्नं सए य देहे निखयक्खं ॥ ३७ ॥ तक्खसिलाए महप्प, बाहुबली तस्स निच्च पडिकूलो। भरह-निरिंदस्स सया न कुणइ आणा-पमाणं सो॥३८॥ जह रुट्ठो चक्कहरो, तस्सुवरिं सयण साहण समग्गो । नयरस्स तुरिय चवलो, विणिग्गओ सयल-बल-सहिओ ॥३६॥ पत्तो तक्खसिलपुरं जय सदुदग्घट्ठ कलयल रावो । जूझस्स करणत्थं सम्मद्धो तक्खनं भरहो ॥४०॥ बाहुबली वि महप्पा भरह नरिंदं समागमं साउं । भडचड वरेण महया तक्खसिलाओ विणिज्जाओ ॥४१॥
पउमरियं ४।३७-४१ (इस ग्रंथ का रचनाकाल दिगम्बरमत उत्पत्ति से पूर्व है) अर्थात्-ऋषभ-जिन के सूर्य-चन्द्र समान सौ पुत्रों ने श्रमणत्व धारण किया । वे सभी देह से निरपेक्ष (अनासक्त) थे। (दीक्षा लेने से पहले) तक्षशिला में महात्मा बाहुबली रहते थे। वे सदा भरत के प्रतिकूल थे, चक्रवर्ती भरत की आज्ञा कदापि न मानते थे। इस से चक्रवर्ती ने रुष्ट होकर सकल सामग्री से सम्पन्न सेना को लेकर युद्ध के लिये अभियान किया। वे तक्षशिला पहुंचे। उस समय जयघोष का कलकल शोर सर्वत्र फैल गया । भरत तत्क्षण युद्धार्थ सन्नद्ध हो गये । उस समय महात्मा बाहुबली भी भारी सुभट सेना के साथ भरत के साथ युद्ध करने के लिये तक्षशिला से निकल पड़े।
घनघोर युद्ध में बाहुबली विजयी हुआ। पर बड़े भाई का सम्मान करते हुए अपना राज्य भरत को दे दिया और स्वयं आहती श्रमण की दीक्षा ग्रहण कर ली । सर्वप्रकार के परिग्रह का त्याग कर अनगार हो गये । भरत ने भी तक्षशिला का राज्य अपने अधीन कर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया और बाहुबली के पुत्र सोमप्रभ (सोमयश) को गांधार (तक्षशिला) और कुरुक्षेत्र (हस्तिनापुर) जनपदों का अधिकारी बना कर सिंहासनारूढ़ किया । स्वयं अपनी राजधानी अयोध्या को लौट गया। महात्मा बाहबली भी दीक्षा लेकर वहीं खड़ी कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानारूढ़ हो गये और एक वर्ष तक बिना कुछ खाये-पिये उसी अवस्था में खड़े रहे । 1. त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र पर्व १ तथा जिनप्रभ सूरि कृत विविध तीर्थ कल्प पृ० ८५ = तक्षशिलायां बाहु
बलि-विनिर्मित धर्भचक्रम् इति । 2. त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरित्र पर्व १ (प्राचार्य हेमचन्द्र कृत)
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