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________________ भूमिका कोई भी जाति अपने अतीत की उपेक्षा करके अपनी भावि का निर्माण नहीं कर सकती। इतिहास हमें अतीत का सम्यग्ज्ञान प्रदान करके उसके परिपेक्ष्य में वर्तमान का समुचित मूल्यांकन करने की तथा भविष्य में यथोचित निर्माण करने का मार्गदर्शन कराता है। मनुष्य के व्यक्तित्व विकास के लिए ऐतिहासिक अध्ययन का प्रायः सर्वोपरि महत्व रहता है। यदि वह पूर्वजों के महत्वपूर्ण कार्यकलापों को बतला कर उनका अनुकरण करने की प्रेरणा देता है तो उनके द्वारा की गई भूलों से शिक्षा लेकर, उन्हें सुधारकर अपने मार्ग को प्रशस्त करने की भी प्रेरणा देता है । किन्तु इतिहास के लिए यह आवश्यक है कि वह प्रामाणिक हो, निष्पक्ष हो, और संतुलित बुद्धि से लिखा जावे। इतिहास लेखक के सन्मुख अनेक विविध कठिनाइयाँ होती हैं । स्वयं अपनी साधन सुविधाओं, क्षमता और समय की सीमाएं, उपयुक्त सामग्री का प्रभाव अथवा विरलता, विवेक, सांप्रदायिक प्रादि दृष्टिराग से मुक्त रहकर सत्य की तह तक पहुंचने की मनोवृत्ति, कदाग्रह का अभाव, यथासम्भव स्वयं निर्णय न देकर पाठकों पर निर्णय देने एवं निष्कर्ष निकालने का भार छोड़ना आदि । जैनधर्म प्रादि (अत्यंत प्राचीन) धर्म है । यह एक ऐसी सनातन धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है जो शुद्ध भारतीय होने के साथ सबसे अधिक प्रामाणिक एवं विशुद्ध मूल स्वरूप में प्राचीनतम जीवित परम्परा है। इसके उद्गम और विकास के बीज सुदूर प्रागैतिहासिक काल में निहित है। मानवी जीवन में कर्मयुग अथवा लौकिक सभ्यता के उदय के साथ ही साथ इस अहिंसा और निवृत्ति प्रधान प्रात्मधर्म का अविर्भाव हुआ। वर्तमान कल्पकाल में इसके आदि पुरस्कर्ता आदि पुरुष, स्वयंभू प्रजापति भगवान ऋषभदेव थे जो चौबीस तीर्थकरों की परम्परा में प्रथम थे । उत्तर भारतीय जगत में इस महान धर्म के उद्भव, विकास एवं वर्तमान का सम्पूर्ण इतिहास प्राप्त नहीं है । और इस महत्वपूर्ण विषय पर लिखने का किसी ने प्रयास किया हो ऐसा हमारे पढ़ने और सुनने में नहीं पाया । वि० सं० १९७४ में मुनि श्री बुद्धिविजय जी आदि पांच पंजाबी मुनिराजों के चरित्रों के संकलन रूप सद्धर्म संरक्षक नामक पुस्तक को लिखते समय स्फूरणा हुई कि इन चरित्रों को लिखकर पूर्ण करने के पश्चात् इसी पुस्तक के परिशिष्ठ रूप में पंजाब के जैन इतिहास का भी संक्षिप्त रूप में संकलन कर दिया जावे । जब इसकी रूप रेखा तैयार की तो ऐसा लगा कि आज तक जिस पर लिखने की तरफ विद्वानों का लक्ष्य नहीं गया, पंजाब का जैन इतिहास स्वतंत्र पुस्तक के रूप से लिखना ही उचित है । ऐसा निश्चय कर लेने पर इस इतिहास की सामग्री एकत्रित करने का कार्य भी चालू कर दिया । इसे तैयार करने में छह वर्षों का लम्बा समय व्यतीत हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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