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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म प्रो०श्री रामप्रसादजी चन्दा के नेतृत्व में यहाँ पृथ्वी की खुदाई हुई थी उससे प्राप्त सीलों के बारे में लिखते हैं कि
(१) “मोहन-जो-दड़ो के उत्खनन से एक खड़ी मूर्ति ऋषभ जिन की कायोत्सर्ग मुद्रा में मिली है जिस पर ऐसी चार मूर्तियाँ अंकित हैं जो कि (मथ रा के कंकाली टीले से प्राप्त) ईसा की दूसरी शताब्दी की ऋषभ जिन की नं० १२ की प्रतिमा से मिलती है।"
(२) हड़प्पा की खुदाई से ऋषभदेव की नग्न मूर्ति का धड़ (गर्दन से कमर के कुछ नीचे के भाग तक) मिला है। इसके सम्बन्ध में काशीप्रसाद जायसवाल तथा ए० बनर्जी शास्त्री का कहना है कि यह धड़ उन नग्न मूर्तियों के धड़ के समान है जो पटना के समीप लोहानीपुर की खुदाई से मिली है जो तीर्थंकरों की ही मूर्तियाँ हैं।
(३) हम यह भी लिख आये हैं कि हड़प्पा की एक सील का चित्र लाहौर के स्व० डा. बनारसीदास जैन द्वारा संपादित 'जैन विद्या' नामक त्रैमासिक पत्र के मुख्य पृष्ठ पर छपा था इस अवशेष पर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हुए एक योगी की मूर्ति है जिसके सिर पर सांप के पाँच फण हैं । जैनों के सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ की मूर्तियों पर साँप के पाँच फण होते हैं । इस प्रतिमा के पाँच फण कंकाली टीला मथुरा से प्राप्त बैठी हुई सुपार्श्वनाथ मूर्ति के सिर पर पांच फणों से मिलते हैं जो मथुरा के कर्जन म्युजियम में सुरक्षित है। पांचफण वाली सुपार्श्वनाथ की मूर्ति राजस्थान में राणकपुर के जैन श्वेतांबर मन्दिर में भी है।
(४) हड़प्पा की खुदाई से कुछ खंडित मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई है। उन सबका अध्ययन करके भारतीय पुरातत्त्व विभाग के डायरेक्टर जनरल श्री टी. एन. रामचन्द्रन लिखते हैं कि
"इन दोनों धड़ों से इस बात की सत्यता पर रोशनी पड़ती है कि ये हड़प्पा-काल की जैन तीर्थंकर की मूर्तियां जैनधर्म में वर्णित कायोत्सर्ग मुद्रा की ही प्रतीक हैं।"
(५) सिंहपुर - ईसा की सातवीं शताब्दी में बौद्ध धर्मानुयायी चीनी यात्री हुएनसांग सिंहपुर में आया। वह उसके वर्णन में लिखता है कि "वहां अशोक राजा के स्तूप के पास एक स्थान है जहां श्वेतपटधारी पाखंडियों के आदि उपदेशक ने बोधि प्राप्त की थी। इस घटना का सूचक यहाँ पर एक शिलालेख भी है । पास ही एक देवमंदिर' भी है जो लोग यहाँ दर्शनार्थ जाते हैं वे घोर तपस्या करते हैं और अपने धर्म में सदा अप्रमत्त रहते हैं। ..."उनके चारित्र सम्बन्धी प्राचार अपने-अपने दर्जे के अनुसार ही होते है । बड़ों को भिक्ष तथा छोटों को श्रामणेतर कहते हैं "13 _ यात्री ने जिन श्वेतपटधारियों तथा देवमंदिर का उल्लेख किया है, वे श्वेतांबर जैन श्रमण
और श्रावक थे और जो स्तूप और देवमंदिर थे वे श्वेतांवर जैनों द्वारा निर्मित स्तूप तथा बाईसवें तीर्थकर श्री अरिष्टनेमि आदि के जैन-मंदिर थे । इसकी पुष्टी श्री जिनप्रभ सूरि के निम्नलिखित उल्लेखों से होती हैं । उन्होंने अपने चतुशीति जैन महातीर्थ नामक कल्प में उल्लेख किया है कि
. "श्री सिंहपुरे लिंगाभिधः श्री नेमिनाथः"......श्री सिंहपुरे च विमलनाथः ॥ अर्थात्-इन्द्र द्वारा निर्मित श्री नेमिनाथ का तथा विमलनाथ का श्री सिंहपुर में जैन महा1. जैन धर्मानुयायियों का यह स्थान महातीर्थ होने के कारण यह स्तूप और देवमंदिर श्वेताम्बर जैनों द्वारा हो १. निर्मित किए गए थे। जिसको बौद्ध यात्री ने धर्माधता या अज्ञानतावश अशोक का स्तुप लिखा है। 2. चौनी यात्री ने जैन मंदिरो का सर्वत्र देवमंदिर के नाम से उल्लेख किया है। 3. Buddhist Records of the western. Vol 1 p. p. 43-45. 4. सिंधी जैन विद्यापीठ द्वारा प्रकाशित-जिनप्रभ सूरि कृत विविध तीर्थकल्प।
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