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________________ १०२ मध्य एशिया और पंजाब में जैनध में धन का उदारता पूर्वक सहयोग देने से यह कार्य सहज साध्य होगा । खेद तो इस बात का है कि इस और त्यागी और गृहस्थवर्ग का दुर्लक्ष्य ही प्राय: है । ११. उपलब्ध साधन सामग्री का जैन समाज स्वयं सँरक्षण, व्यवस्था और उपयोग करना सीखे। इसे विद्वानों के सहयोग से प्रकाशित कर और करवा कर प्रचार और प्रसार करे यही श्राज के समय की मांग है । पंजाब में जैनधर्म के ऐतिहासिक साधनों के अभाव का कारण पंजाब में सैकड़ों नहीं, हज़ारों-हज़ारों कीर्तिस्तम्भ काल की कुक्षी में चले गये । उनका अब कहीं पता नहीं । पुराने खण्डहर खोदने से यदि उनका कोई भग्नांश निकल आता है तो पुरातत्त्व यहां की सभ्यता के बहुत पुराने होने के प्रमाण पा जाते हैं । यहां के अनेक मन्दिर, महल, स्तूप और गढ़ आदि तो काल खा गया । धर्मान्धों और बर्बर विदेशियों ने भारत में प्रवेश करने पर सर्व प्रथम पंजाब की धरती पर कदम रखे और धर्मान्धता अथवा उत्पीड़न की प्रेरणा से ही उन्हें नष्ट - भ्रष्ट कर दिया । उनका असमय में विनाश का विचार करके कलेजा मुंह को आता है । प्राचीन काल में तक्षशिला, काश्मीर,कांगड़ा - कुलु (हिमाचल प्रदेश) पंजौर, सिंहपुर, सिंध, हस्तिनापुर आदि अनेकानेक स्थान जैन संस्कृति के रूप में बड़ी उन्नत अवस्था में थे । वे लक्ष्मी की लीला भूमियां थीं । देवमंदिरों में शंखध्वनियों और भक्तजनों के दिव्यनादों से गगन गूंज उठता था। विद्वानों, निर्ग्रथों (जैन श्रमणों) के विहार स्थल और बड़े-बड़े प्रतापी जैन राजों - महाराजों की, धन-कुबेर श्रेष्ठियों की प्रभुता की पंजाब की धरा निकेतन थी । पंजाब के उन जैन महातीर्थों को, जैनों से विस्तृत आबादी वाले नगरों और गावों को; जिनका प्रायात बहुत विस्तृत था विदेशियों और धर्मान्धों ने धराशायी कर दिया । इसलिए उनमें से अनेकों विक्राल काल के ग्रास बन चुके हैं । अनेकों जैनमंदिरों को हिन्दू और बौद्धमन्दिरों में बदल लिया गया। जैनमूर्तियों को अन्यमतियों ने अपने-अपने इष्ट देवों के रूप में बदल दिया और मुसलमानों ने मस्जिदों के रूप में परिवर्तित कर लिया । अनेक मंदिरों से जैन मूर्तियों को उठाकर नदियों, कुत्रों आदि में फेंककर उन मंदिरों को अपने अपने धर्म स्थानों के रूप अधिकार जमा लिया। जैन शास्त्रों की होली जलाई गई । इस प्रकार ऐतिहासिक सामग्री को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया । जैनों ने स्वभावतः स्तूप भी बनाये थे और अपनी पवित्र इमारतों की चारों ओर पत्थर के घेरे भी लगाये थे । जैन साहित्य में अनेक जैनस्तूपों के होने के उल्लेख मिलते हैं जैनाचार्य जिनदत्त सूरि के जैन स्तूपों में सुरक्षित जैन शास्त्र भंडारों में से कुछ जैन ग्रंथ पाने का भी उल्लेख मिलता है । जैन साहित्य में तक्षशिला. अष्टापद, हस्तिनापुर, सिंहपुर, काश्मीर आदि में भी जैन स्तूपों का वर्णन मिलता है । सम्राट सम्प्रति ने अपने पिता कुणाल के लिए तक्षशिला में एक जैन स्तूप का निर्माण कराया था । मथुरा का जैन स्तूप तो विश्व विख्यात था। चीनी बौद्ध यात्रियों फाहियान, सांग आदि ने अपनी यात्राओं के विवरण में उनके समय में भारत व्यापी इन जैनधर्म के स्तूपों को धर्मान्धता के कारण अथवा अज्ञानता के कारण अशोक अथवा बौद्ध स्तूप लिख दिया । उन यात्रियों के सारे यात्रा बिवरणों में एक भी जैन स्तूप का उल्लेख नहीं मिलता। जहां जहाँ इन चीनी यात्रियों ने जैन निर्ग्रथ श्रमणों की अधिकता बतलाई है और उन निर्ग्रथों का जिन स्तूपों तथा गुफाओं में उपासना करने का वर्णन किया है उन्हें भी जैनों का होने का उल्लेख नहीं किया । यद्यपि यह बात स्पष्ट है कि जिन स्तूपों तथा गुफाओं में जैन निग्रंथ श्रमण निवास करते थे वे अवश्य जैनस्तूप और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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