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विदेशों में जैन साहित्य
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यान भारत में प्राया था और यहां से ताड़पत्रों पर लिखी हुई १५२० पुस्तकें चीन ले में गया था ।
(5) विक्रम की ७ वीं शताब्दी में चीनी यात्री हुएनसांग भारत में आया था वह भी अपने साथ पहली बार ९५५०, दूसरी बार २१७५ और ईस्वी सन् ७६४ के आसपास २५५० ताड़पत्रों पर लिखे हुए ग्रन्थ अपने साथ चीन ले गया। इस प्रकार विदेशों से कितने ही यात्री आते रहे और वे अपने साथ भारतीय साहित्य ले जाते रहे । वे लोग भारत से कितने ग्रंथ ले गए उनकी संख्या का अनुमान कौन लगा सकता है ?
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फिर भी हमें इस बात की खुशी है कि जिन म्लेच्छों प्राततायियों, धर्मद्वेषियों ने हमारे अंसख्य साहित्य को जला कर भस्मीभूत कर दिया और सँदा के लिए उसका अस्तित्व मिटा दिया उनकी अपेक्षा जो विदेशी यहां से ले गए वह अच्छा ही रहा। कारण यह है कि वहां हमारा साहित्य अच्छी तरह सुरक्षित ही है और उनका अच्छे से अच्छा लाभ उठाया जा रहा है ।
जैन ऋषि-मुनियों और विद्वान गृहस्थों ने ऐसा कोई भी विषय अछूता नहीं रहने दिया कि जिस पर कलम न उठाई हो । जैसे आत्मवाद, अध्यात्मवाद, कर्मवाद, परमाणुवाद, नीति, काव्य, कथा, अलंकार- छन्दशास्त्र, व्याकरण, निमित्त, कला, संगीत, जीव-जीव विज्ञान, राजनीति, लोकाचार, ज्योतिष, वैद्यक, खगोल, भूगोल, गणित, फलित, दर्शन- धर्मशास्त्र इत्यादि । मात्र इतना ही नहीं किन्तु भाषा विज्ञान, मानसविज्ञान, शिल्पविज्ञान, पशु पक्षी विज्ञान को भी अछूता नहीं छोड़ा | हंसदेव नाम के जैन मुनि ने मृग-पक्षी शास्त्र नाम का ग्रंथ लिखा था जिसमें ३६ सर्ग और १६०० श्लोक हैं, इसमें २२५ पशु-पक्षियों की भाषा का प्रतिपादन किया गया है । इस ग्रंथ को जैनों ने ही नहीं जैनेतर विद्वानों ने भी मुद्रित करा दिया है और पठन-पाठन द्वारा अच्छा लाभ भी उठाया है । "
आज भी जैनशास्त्र भंडारों में ऐसे अलौकिक ग्रंथ विद्यमान हैं जो ऐसे स्वार्थी, अनभिज्ञ, धन के मद से मदोन्मत्त तथा समाज के नेता होने से अभिमान की पराकाष्ठा तक पहुंचे हुए लोगों के हाथ में है कि जिनकी असावधानी से क्षुद्र कीटाणुओं ( दीमक ) की खुराक बन रहे हैं और कोई भी विद्वान उनसे लाभ नहीं उठा सकता । जनकल्याण के लिए निर्माण किया हुआ साहित्य प्राज अविवेकी, स्वार्थी लोगों की सम्पत्ति बन गया है । अथवा मूर्ख यति- शिष्य उन्हें कोड़ियों के दामों में बे-खा जा रहे हैं ।
इस प्रकार ऐतिहासिक साधनों का विनाश, प्रभाव और मिलने की दुर्लभता के ये सबसे महत्वपूर्ण कारण बतलाये है कि विधर्मी प्राततायियों के द्वारा साहित्य का नष्ट किया जाना, विदेशियों द्वारा विदेश में ले जाना, और शेष बचे हुए हमारे ही देश में स्वार्थी लोगों के अधिकार में रह जाने से अप्राप्य हो जाने के कारण इतिहास अनुपलब्ध हो रहा है । यह साहित्य इतिहास लिखने में सर्वप्रथम साधन कहा जा सकता है ।
२ - ऐतिहासिक साधनों में दूसरा नम्बर मंदिर, मूर्तियां, स्तूप, स्मारक आदि का है। भारत प्राचीनकाल से जिसे हम ऐतिहासिक काल से पूर्वकाल भी कह सकते हैं मूर्तियों आदि का मानना साबित है। विद्वानों का भी मत है कि मूर्ति मान्यता का प्रचलन सर्वप्रथम जैनों से ही हुआ है । जैन शास्त्रों के आधार से तो मूर्ति की मान्यता अनादिकाल से चली आ रही है । किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से यदि देखा जाय तो मोहन-जो-दड़ो, हड़प्पा आदि सिन्धुघाटी सभ्यता की खुदायी से प्राप्त सामग्री जो ईसा पूर्व ३००० वर्ष पुरानी पुरातत्त्व - वेत्ताओं ने मानी है, उसमें से भी ऋषभ, सुपार्श्व आदि जैन तीर्थंकरों से सम्बन्धित प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं ।
1. देखें ईस्वी सन् १९४१ अक्तूबर की मासिक पत्रिका हिन्दी सरस्वती ।
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