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________________ ७६ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म ढंग से) कहना पड़ता है कि मृग और गाय प्रादि प्राणी जो तृण भक्षण से अपना जीवन व्यतीत करते हैं वे यदि मांस भक्षण के विमुख बनें तो उसमें विशेषता ही क्या है ? तत्त्व तो वहां है कि सिंह का बच्चा मांस का विरोध करे । यानि उनके कहने का अभिप्राय यह है कि धन-सोना, ऋद्धि-सिद्धि और एश्वर्य के झुले में झूला हुआ और खूनी संस्कृति से भरे हुए क्षत्रिय कुल के वातावरण में चमकती हुई तलवार के तेज में तल्लीन होता हुआ बालक, कुल परम्परा की कुल देवी समान खूनी खंजर के विरुद्ध महान आन्दोलन करने के लिए सारी ऋद्धि-सिद्धि और सम्पत्ति को मिट्टी के समान मान कर और भोग को रोग तुल्य समझ कर योग की भूमिका में खूनी वातावरण को शान्तिमय और अहिंसक बनाने के लिए वनखण्ड और पर्वतों की कंदरात्रों में निस्पृही बन कर ज्ञातृपूत्र वर्धमान (महावीर) सारा जीवन व्यतीत करे । मात्र दिनों तक ही नहीं किन्तु महीनों एवं वर्षों तक भूपति दीर्घ-तपस्वी बन कर भटकता फिरे । साढ़े बारह वर्ष की घोर संयम यात्रा में प्रगलियों पर गिने जाने वाले नाम मात्र के दिनों में पारणे रूखे-सूखे टुकड़ों से करे और सारा काल अहिंसा के आदर्श सिद्धान्त के पालन करने और कराने में निमग्न रहे । संयम की सर्वोत्कृष्ट साधना करने में तीवातितीव्र तप की ज्वालाओं से अपनी आत्मा को कंचन समान निर्दोष बनाने में तल्लीन रहे उनकी इस घोर तपस्या-संयम आदि अमूल्य जीवन-यात्रा के पर्दे में बड़ा भारी रहस्य था कि जिसमें मात्र मानव-समाज ही का नहीं, परन्तु प्राणी मात्र के परम श्रेय का लक्ष्य था। मुझे तो यह तार्किक अनुमान बड़ा ही सुन्दर प्रतीत होता है। दया के परम्परागत संस्कारों वाले कल में जन्म लेने वाला व्यक्ति दया का पालन करे और उसकी पुष्टि के लिए बातें करे यह तो स्वाभाविक है तथा भोग सामग्री के अभाव में वैराग्य के वातावरण का असर अनेकों पर होना संभव है किन्तु राजकुल की ऋद्धि और ऐश्वर्य के सागर में से बाहर कूद कर त्याग भूमि पर आने वाले तो कोई अलौकिक व्यक्ति ही नजर आते हैं। भगवान् महावीर ने जो उपसर्ग तथा परिषह सहन किए उनका वर्णन करते हुए हृदय काँप उठता है। धन्य है उस महाप्रभु महावीर को जिनके हृदय में मित्रों के श्रेय के समान शत्र प्रओं के श्रेय का भी स्थान था। जैनागमों में कहा है कि वे मात्र क्षमा में ही वीर न थे किन्तु दानवीर दयावीर, शीलवीर, त्यागवीर, तपोवीर, धर्मवीर, कर्मवीर और ज्ञानवीर आदि सर्व गुणों में वीर शिरोमणि होने से उनका वर्धमान नाम गौन होकर महावीर नाम विख्यात हुआ। भगवान ने कहा किसी देश राष्ट्र और जगत को जीत कर वश में करने वाला सच्चा विजेता नहीं, किन्तु जिसने अपनी प्रात्मा को जीता (self conqueror) है वही सच्चा विजेता है। उनका दर्शाया हुअा अहिंसावाद, कर्मवाद, तत्त्ववाद, स्याद्वाद, सृष्टिवाद, आत्मवाद, परमाणवाद, और विज्ञानवाद इत्यादि प्रत्येक विषय इतना विशाल और गम्भीर है जिनका अभ्यास करने से उनकी सर्वज्ञता स्पष्ट सिद्ध होती है। उन्होंने सर्वसाधारण जनता को मानव संस्कृति विज्ञान (Science of Human culture) के विकास की पराकाष्ठा पर पहुंचने के लिए मुक्ति महातीर्थ का राजमार्ग (Royal road) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र (Right faith, Right knowledge and Right conduct) रूप अपूर्व साधन द्वारा पद्धतिसर दर्शाया । इसलिए वे तीर्थंकर कहलाये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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