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________________ जैनधर्म का महत्त्व ७५ जीवन में अनेक बार परिचय दिया है । १. जब जंगल में वे ध्यानस्थ खड़े थे तब एक प्रचण्ड विषधर (चण्डकौशिक) ने उन्हें डस लिया उस समय वे न केवल ध्यान में अचल रहे परन्तु उन्होंने मैत्री भावना का उस विषधर पर प्रयोग किया जिससे यह सदा के लिए उपशांत हो गया। वैर से होने वाली हिंसा को रोकने का भरसक प्रयत्न तो वे आजन्म करते ही रहे। इसलिए तो उन्होंने अहिंसा को जनश्रमणों तथा जैन श्राविकों के व्रतों में सर्वप्रथम स्थान दिया है : "तथिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं । अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमो॥ (द० अ० ६ गा०६) एवं खु णाणिणो सारं, जं न हिंसई कंचणं । अहिंसा संयम चेव, एतावंतं विजाणिया ॥ (सू० १ ० १ अ० ११ गा० १०) अर्थात् अहिंसा को प्रभु महावीर ने (साधु और श्रावक के व्रतों में) सर्वप्रथम रखा है। अहिंसा को उन्होंने कल्याणकारी ही देखा है। सर्वजीवों के प्रति सयमपूर्ण जीवनव्यवहार ही उत्तम अहिंसा है। ज्ञानियों के वचनों का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न की जाये। अहिंसा के द्वारा प्राणियों पर समभाव ही धर्म समझना चाहिए। सारांश यह है कि जैन तीर्थकर अहिंसा की सुरक्षा के लिए आजन्म कटिबद्ध रहे और अनेक कठिनाइयों के बीच भी इन्होंने अपने आदर्शों द्वारा विश्व को मैत्री तथा करुणा का पाठ पढ़ाया है। उनके ऐसे ही आदर्शों से जैन सस्कृति उत्प्राणित होती आयी है और अनेक कठिनाइयों के बीच भी उसने अपने आदर्शों के हृदय को किसी न किसी तरह सभालने का प्रयत्न किया है, जो भारत के धार्मिक, सामाजिक और राजकीय इतिहास में जीवित है। इस उपर्युक्त विवेचन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि श्रमण भगवान् महावीर सर्वज्ञसर्वदर्शी थे। उनके प्राचार और विचार यहां तक पवित्र थे कि जब वे अजीव पदार्थों का भी इस्तेमाल (उपयोग) करते थे तो इस बात की पूरी सावधानी रखते थे- "मेरे द्वारा किसी छोटे से छोटे प्राणी को भी कष्ट न पहुचे।" इस विश्वविभूति ने जगत के प्राणियों को जिस अहिंसा के महान् पवित्र सिद्धान्त का उपदेश दिया था। अर्थात् जो कुछ वे जगत के प्राणियों को आचरण करने के लिए उपदेश देते थे उसको वे स्वयं भी पालन करते थे। उनके रोम-रोम और शब्द-शब्द से विश्व के प्रत्येक प्राणी के प्रति वात्सल्य भाव प्रगट होता था। उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद सर्वप्रथम यही उपदेश दिया था"मा हण-मा हण (मत मारो-मत मारो)" अर्थात् किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो और इसी उपदेश के अनुसार ही जो उनके धर्ममार्ग को स्वीकार करता था, उसे वे सर्वप्रथम जीव-हिंसा का त्याग रूप "प्राणातिपात विरमण व्रत" धारण कराते थे। फिर वह चाहे श्रमण हो अथवा श्रावक इसका विवेचन हम पहले कर पाए हैं। श्रमण भगवान महावीर की अहिंसा के विषय में भारत के महान धाराशास्त्री सर अल्लाड़ी कृष्णा स्वामी अय्यर ने एक तार्किक दलील दी थी। उन्होंने कहा था कि मैं धारा शास्त्र का अभ्यासी होने से धार्मिक तत्त्वज्ञान में विशेष अध्ययन का लाभ नहीं उठा सका। परन्तु Logically (ताकिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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