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________________ मूढ लोक अजाण्यो बोले, सुर जाणंता इम कांइ डोले । मूं आगल को जाण भणीजे, मेरू अवर किम ओपम दीजे ॥१५॥ (वस्तु) वीर जिणवर वीर जिणवर नाणसंपन्न, पावापुरि सुरमहिअ पत्तनाह संसार तारण, • तिहिं देवे निम्मविअ समोवसरण बहु सुखकारण, जिणवर जग उज्जोअकरे, तेजे करी दिणकार; सिंहासने सामी ठन्यो, हुओ सुजय जयकार 金 18EU ढाळ तीसरी (भाषा) ॥ तव चडिओ घणमाणगजे, इंद भूइ भूदेव तो, कारो करि संचरिअ, कवणसु जिणवर देवतो योजन भूमि समोसरण पेखे प्रथमारंभ तो दहदिसि देखे विबुध वहू, आवंती सुर रंभ तो सुरनर किन्नर असुर वर, इंद्र इंद्राणि राय तो; चित्ते चमक्किय चिंतवे ए सेवंता प्रभुपाय तो २३ मणिमय तोरण दंड धज, कोसीसे नव घाट तो; वयर विवर्जित जंतु गण प्रातिहारज आठ तो Jain Education Intern I FED BUS ॥३८॥ 版 ॥१६॥ BUT SO THE ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ Janel Ibrary.org
SR No.003164
Book TitleLabdhinidhan Gautamswami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshbodhivijay
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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