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ऐसे पंडित होने पर भी सम्यग् दर्शन के अभाव से वह सच्चे ज्ञानी नहीं बन सके थे, क्यों कि शुद्ध श्रद्धा युक्त ज्ञान ही सच्चा कहलाता है, और वह उनके पास नहीं था ।
* प्रभू वीर का समागम और दीक्षा
श्री इन्द्रभूतिजी ५० वर्ष की उम्र तक मिथ्यात्व में रहे। जब प्रभु वीर को केवलज्ञान होने पर तीर्थ स्थापन प्रसंग हेतु श्री इन्द्रभूति आदि ११ ब्राह्मणों को गणधर पद के योग्य समझकर प्रभु विहार करके मध्यम पापा (अपापा) नगरी के महसेन नाम के उद्यान में पधारे, वहाँ समवसरण में बैठकर प्रभु देशना देते थे, और नगरमें इन्द्रभूति आदी ब्राह्मणों यज्ञ क्रिया कर रहे थे । तब इन्द्रभूति को आकाश मार्ग से आते देवोके निमित्त से सर्वज्ञ श्री प्रभु वीरका परिचय हुआ। जब वें प्रभुके पास चर्चा करने हेतु पहुँचे तब प्रभु ने सामने से कहाँ " है इन्द्रभूति ! तुम्हे जीव है या नहीं इस बात का संशय हैं?" इस प्रकार प्रभु का वचन सुनकर इन्द्रभूति को आश्चर्य के साथ प्रभु की सर्वज्ञता की प्रतीती हुई । प्रभूने उनकी शंका का उपयोग धर्म की अपेक्षा से सत्य अर्थ बताया और इन्द्रभूति का संदेह दूर होने सें वही पर ही अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ वैशाख सुदि ग्यारस के शुभ दिन संयम अंगीकृत किया (दुसरे भी दस ब्राह्मणों ने उसी
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