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________________ आराधना की, और पौषधशाला में ध्यान में अवस्थित हो गया। कर्मों की निर्मलता और क्षयोपशम में उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ। वह पूर्व - पश्चिम - दक्षिण दिशा में ५००-५०० योजन पर्यंत लवण समुद्र का क्षेत्र तथा उत्तम में हिमवान वर्षधर पर्वत का क्षेत्र देखने - जानने लगा। ऊर्ध्व में प्रथम देवलोक सौधर्मकल्प तथा अधोदिशा में प्रथम नरक भूमि रत्नप्रभा में ८४,००० वर्ष की स्थितियुक्त लोलुपाच्युत नामक नरक तक देखने, जानने लगा। भगवान महावीर गणधर गौतम स्वामी और मुनिसमुदाय के साथ वाणिज्यग्राम पधारे । गुरू गौतम गोचरी के लिए जब नगर में गये, तो आनंद के अवधिज्ञान की लोकवार्त सुनी । गौतम आनन्द के घर गये । आनंद तपस्या से कृश व उठने में असमर्थ हो गया था। उसने हाथ जोडकर गौतम से कहा - "भंते ! आप मेरे निकट आने की - कृपा करे, ताकि में आपके चरणों में वंदन कर सकूँ।" गौतम आनंद के पास जाते हैं। अति विनीतभाव से आनन्द गौतम को वन्दन करता है। आनंद ने हाथ जोडकर कहा - "भंते ! क्या श्रावक को । अवधिज्ञान हो सकता है ?" गौतम ने कहा-हो सकता है। आनंद - प्रभो ! मैं चारो दिशाओं में ५००-५०० योजन, ऊर्ध्व Jain Education national For Private & Personal Use Only library.org
SR No.003164
Book TitleLabdhinidhan Gautamswami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarshbodhivijay
PublisherAndheri Jain Sangh
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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