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अनेकान्त और अहिंसा
- आचार्य महाप्रज्ञ
हमारा जगत् द्वन्द्वात्मक अथवा भेदाभेदात्मक है। अभेद छिपा रहता है और भेद सामने आता है। मनुष्य मनुष्य में अनेक प्रकार के भेद हैं
१. मान्यता अथवा अवधारणा का भेद । २. विचार का भेद। ३. रुचि का भेद । ४. स्वभाव का भेद। ५. संवेग का भेद।
मान्यता-भेद
मान्यता-भेद के आधार पर अनेक सम्प्रदाय बने हैं, उनके अनुयायियों की संख्या का विस्तार हुआ है । सांप्रदायिक भेद होना वैचारिक स्वतन्त्रता का लक्षण है। मनुष्य यांत्रिक नहीं है । वह चिन्तनशील प्राणी है,अपने ढंग से सोचता है,सिद्धान्त का निर्धारण करता है और स्वीकार करता है।
मनुष्य चिन्तनशील होने के साथ-साथ संवेगयुक्त भी है। यदि वह केवल चिंतनशील होता तो भेद भेद ही रहता । वह विरोध का रूप लेकर साम्प्रदायिक विद्वेष, कलह और झगड़े की स्थित का निर्माण नहीं करता। सांप्रदायिक उत्तेजना का मूल कारण सिद्धान्त-भेद नहीं है, उसका कारण है संवेगजनित आग्रह ।
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