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विश्व शान्ति और अहिंसा जीवन की प्रत्येक क्रिया का संपादनं सयंम से हो,इस बोधपाठ के साथ ही मुझे बताया गया-बिना प्रयोजन प्रकृति के किसी भी पदार्थ की छेड़छाड़ मत करो । उसका अपव्यय मत करो। संयम का साधक किसी भी वस्तु का दुरुपयोग नहीं कर सकता।
मैंने तीसरा पाठ पढ़ा-पुढो सत्ता प्रत्येक प्राणी का अस्तित्व स्वतंत्र है। इसलिए तुम्हें किसी को सताने,चोट पहुंचाने और आहत करने का अधिकार नहीं है। किसी प्राणी पर हुकूमत करने और दास बनाने का भी अधिकार नहीं है। कोई व्यक्ति किसी को सताता है, चोट पहुंचाता है,आहत करता है, किसी पर हुकूमत करता है या किसी को दास बनाता है,यह उसकी अनाधिकार चेष्टा है । ऐसी चेष्टा करने वाला व्यक्ति अहिंसक नहीं हो सकता।
संस्कारों की विरासत
मैंने पूज्य कालूगणी से कोरा सिद्धान्त ही नहीं पढ़ा, मुझे उनके जीवन-व्यवहार से अहिंसा का सक्रिय प्रशिक्षण मिला। वे कभी दूसरे सम्प्रदाय के प्रति आक्षेप नहीं करते थे। ये संस्कार उन्हें विरासत में मिले थे। भगवान महावीर के समय में भी यह सिद्धान्त प्रयुक्त होता था। आर्द्रकुमार ने आजीवक सम्प्रदाय के आचार्य गोशालक से कहा-“मैं किसी व्यक्ति की गर्दा नहीं कर रहा हूं। मैं केवल उस विचार को गर्दा कर रहा हूं, जो वांछनीय नहीं है।"
आचार्य भिक्षु ने इस सिद्धान्त को आत्मसात् किया। उन्होंने किसी भी व्यक्ति या सम्प्रदाय की आक्षेपात्मक आलोचना नहीं की। पूज्य कालूगणी ने उसी परम्परा को सजीव बनाए रखा। उन्होंने शास्त्रार्थ के समय आवेश से बचने का परामर्श दिया। वे कहते थे-“शास्त्रार्थ के समय उत्तेजित होना पराजय का पहला लक्षण है। आवेशपूर्ण धर्म-चर्चा भी हिंसा है।" उनको शान्ति और मृदुता ने मेरे मानस पर बहुत प्रभाव छोड़ा। उन्होंने मुझे जो कुछ सिखाया,व्यवहार में वैसा ही करके दिखाया। कथनी और करनी की यह संवादिता अहिंसा की विशिष्ट फलश्रुति है। अहिंसा का साधक कटु सत्य भी नहीं बोल सकता,फिर वह कटु आक्षेप कैसे लगा सकता है ? इस बोधपाठ ने मुझे संयत और संतुलित रहना सिखाया।
अहिंसा की पृष्ठभूमि
अहिंसा और सत्य दोनों एक-दूसरे के पर्याय है। अहिंसा के बिना सत्य नहीं
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