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विश्व शान्ति और अहिंसा
सापेक्ष माना गया है। सापेक्षता का सिद्धान्त प्रकृति के प्रत्येक कण पर लागू होता है। कहीं पर वृक्ष का एक पत्ता भी टूटकर गिरता है तो उसका प्रभाव पूरी सृष्टि पर पड़ता है। “मैं रहूंगा या वह रहेगा", अहिंसा की परिधि में इस चिन्तन को स्थान नहीं मिल सकता । “मैं भी रहूंगा, तुम भी रहोगे। यह भी रहेगा, वह भी रहेगा " - इस प्रकार सह-अस्तित्व की भाषा में सोचना अहिंसा का दर्शन है 1
अन्तर्जगत् में अहिंसा के प्रयोग
अहिंसा के सैद्धान्तिक पक्ष को समझने के बाद उसके प्रायोगिक स्वरूप को समझना आवश्यक है । प्रायोगिक के दो बिन्दु हैं- अन्तर्जगत् और बाह्य जगत् । अन्तर्जगत् में प्रशिक्षण का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है-संवेग संतुलन (Balance of Emotions) । मनोविज्ञान की भाषा में मानसिक उथल-पुथल या उद्वेलन की अवस्था का नाम संवेग है । भय, क्रोध, जुगुप्सा, कामुकता, सुख, दुःख आदि संवेग प्रतिक्रियात्मक भावों के रूप में अपना प्रभाव दिखाते हैं ।
मनुष्य जब तक वीतराग नहीं बन जाता, संवेगों के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकता। पर इनका संतुलन न होने से अनेक प्रकार की समस्याएं पैदा हो जाती हैं। संवेगी को संतुलित करने की प्रकिया को यहां उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है
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क्रोध एक संवेग है । इसे नियंत्रित करने के लिए इमोशनल एरिया — भाव- क्षेत्र पर ध्यान के प्रयोग करवाए जाते हैं। चैतन्य-केन्द्र प्रेक्षा और लेश्याध्यान के प्रयोग इसके लिए कार्यकारी प्रमाणित हुए हैं।
प्रमाद एक संवेग है । यह जागरूकता घटाता है। इसको नियंत्रित करने के लिए चैतन्य- केन्द्र प्रेक्षा, लेश्याध्यान और दीर्घ श्वास प्रेक्षा के प्रयोग निर्धारित हैं 1 नशा मुक्ति के लिए भी इन प्रयोगों को काम में लिया जाता है।
हीन भावना और अहं भावना ऐसे संवेग हैं, जो मनुष्य के समग्र व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं। इनके प्रभाव को क्षीण करने के लिए अनुकंपी और परानुकंपी —-Sympathetic & Parasympathetic नाडी- तंत्र पर ध्यान के विशेष प्रयोग करवाए जाते हैं।
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