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शांति और अहिंसा-उपक्रम उत्तरोत्तर दक्षता बढ़ रही है। उसके लिए नए-नए साधन विकसित हो रहे हैं। आगे-से-आगे नई तकनीक खोजी जा रही है। अनेक प्रसंगों में उसका खुला प्रयोग भी हो रहा है। लगता है महावीर की इस वाणी को समर्थन मिल रहा है कि “अस्थि सत्यं परेण परं-शस्त्र आगे से आगे तीक्ष्ण होता है,उसकी परम्परा चलती है। ___अहिंसा के प्रयोग की बात तो दूर, उसके प्रशिक्षण की भी कोई व्यवस्था नहीं है। अहिंसा का उपदेश बहुत दिया जाता है,उसके गुणगान बहुत किए जाते हैं,पर उसके प्रशिक्षण की बात कौन सोचते हैं । ऐसी स्थिति में यह आशा कैसे की जा सकती है कि
अहिंसा आएगी और वह जीवन-शैली से जुड़ेगी? अधिक लोगों को तो यह विश्वास ही नहीं है कि अहिंसा कुछ कर सकती है या उसका प्रशिक्षण दिया जा सकता है। हमारी मान्यता यह है अहिंसा में असीम शक्ति है और उसका प्रशिक्षण दिया जा सकता है।
अहिंसा का सैद्धान्तिक स्वरूप
अहिंसा-प्रशिक्षण के स्वरूप का निर्धारण किया जाए तो उसके दो रूप हो सकते हैं-सैद्धान्तिक और प्रायोगिक । सैद्धान्तिक प्रशिक्षण में दार्शनिक सत्यों का अवबोध कराया जाता है। अहिंसा के दार्शनिक पहलू अनेक हैं। उन सबकी चर्चा में प्रशिक्षण की बात बिखर सकती है। इस दृष्टि से यहां कुछ ऐसे बिन्दुओं को उल्लिखित किया जा रहा है, जिनको समझे बिना अहिंसा के प्रशिक्षण का कोई आधार भी नहीं बनता। दार्शनिक पृष्ठभूमि पर अहिंसा की मूल्यवत्ता प्रमाणित करने वाले णंच बिन्दु हैं
• आत्मा का अस्तित्व ० आत्मा की स्वतंत्रता • आत्मा की समानता ० जीवन की सापेक्षता ० सह-अस्तित्व
आत्मा है। प्रत्येक आत्मा का सुख-दुःख अपना-अपना है। इस दृष्टि से आत्मा स्वतंत्र है । गणित की भाषा में आत्मा अनन्त हैं । उनकी कर्मकृत अवस्थाएं भिन्न-भिन्न हैं। पर स्वरूप की अपेक्षा से सब आत्माएं समान हैं | समानता का यह सिद्धान्त मनुष्य तक ही सीमित नहीं है । संसार में जितने प्राणी हैं, उन सबकी आत्मा समान है। कोई भी व्यक्ति निरपेक्ष रहकर अपने अस्तित्व को नहीं बचा सकता । इसी कारण जीवन को
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