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आध्यात्मिक-वैज्ञानिक व्यक्तित्व का निर्माण
- आचार्य महाप्रज्ञ
'सच्चं भयवं'-सत्य ही भगवान है। महात्मा गांधी ने भी इसी विचार को बताया था और आचार्य तुलसी भी यही कहते हैं। आज हम सब इसी सत्य को पाने के लिये यहां एकत्रित हुए हैं।
भारतीय दर्शन के अनुसार देशातीत होना ही अहिंसा है,यही शान्ति है। इसके लिये सीमा और संतुलन शब्दों पर जोर देना आवश्यक है। जब तक इच्छा के परिमाण पर विचार नहीं होगा अहिंसा की बात करना ही व्यर्थ है । भौतिक संग्रह और आर्थिक विषमता आज की मुख्य समस्या है। व्यक्तिगत स्वामित्व असीम हो रहा है। व्यक्तिगत स्वामित्व का न होना व्यावहारिक नहीं है, किन्तु व्यक्तिगत स्वामित्व का असीम होना अन्याय है। अहिंसा की प्रतिष्ठा के लिए अहिंसा से पहले परिग्रह के सीमांकन पर ध्यान देना आवश्यक है।
अहिंसा की प्रस्थापना में एक महत्वपूर्ण आयाम है--सुविधावादी दृष्टिकोण में बदलाव । हम प्रदूषण से चिन्तित हैं,त्रस्त है । सुविधावादी दृष्टिकोण प्रदूषण पैदा कर रहा है। उस पर हमारा ध्यान नहीं है। मैं जानता हूं, समाज सुविधा को छोड़ नहीं सकता; किन्तु वह असीम न हो,यह विवेक आवश्यक है। यदि सुविधाओं का विस्तार निरन्तर जारी रहा तो अहिंसा का स्वप्न कभी यथार्थ में परिणत नहीं होगा। हमें सुविधावादी दृष्टिकोण को समाप्त करना है,विचारों में मोड़ लाना है।
हम एक तरफ तो अहिंसक समाज रचना की बात कर रहे हैं, दूसरी ओर हमारी शिक्षा केवल बौद्धिक व्यक्ति पैदा कर रही है। भावना की शिक्षा के बिना बौद्धिक शिक्षा व्यर्थ है। शिक्षा में अहिंसा के विकास के लिये कोई स्थान ही नहीं है। जब तक
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