SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आलोक प्रज्ञा का १४७. विशुद्धिश्चेतनायाश्च वीतरागवशाऽथवा । उपादानञ्च धर्मस्य, सम्मतं निश्चये नये || भंते ! वह उपादान क्या है ? वत्स ! वह उपादान है— चेतना की विशुद्धि या वीतरागदशा । निश्चय नय में धर्म का यही उपादान सम्मत है । उपासना क्यों ? १४८. आत्मबोधो विकासश्च, गुणानां जायते यतः । परिष्कारः समाधिश्च सा नामोपासना भवेत् ॥ 1 ५१ प्रभो ! उपासना का महत्त्व क्यों है ? वत्स ! ज्ञानी की उपासना करने से आत्मबोध प्राप्त होता है, गुणों का विकास होता है, वृत्तियों का परिष्कार होता है और समाधि मिलती है । जिससे ये सब प्राप्त होते हैं उसका नाम है उपासना - ज्ञानी की सन्निधि में रहना । णमोक्कारो परमं मंगलं १४६. मंगलं ज्ञानमेवाऽस्ति मंगलं दर्शनं तथा । मंगलं परमानन्दः, मंगलं शक्तिरुच्यते ।। गुरुदेव ! नमस्कार महामंत्र सब मंगलों में श्रेष्ठ मंगल क्यों है ? शिष्य ! ज्ञान मंगल है | दर्शन मंगल है | परम आनन्द मंगल है और शक्ति मंगल है | इस महामन्त्र में इन चारों का समावेश है, इसलिए यह श्रेष्ठ मंगल है, सब पापों का नाश करने वाला है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003161
Book TitleAlok Pragna ka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages80
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy