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आलोक प्रज्ञा का
धर्म और मोक्ष । इनमें परस्पर विरोध है। ये एक दूसरे को बाधित करते हैं । क्या इस विरोध का परिहार किया जा सकता
वत्स ! हां, इस विरोध का परिहार करने के लिए वैदिक चिंतन में सीमा का निर्धारण किया गया है--काम का पुरुषार्थ उतना ही वांछनीय है जो अर्थ को बाधित न करे। अर्थ का पुरुषार्थ उतना ही वांछनीय है जो काम को बाधित न करे । काम और अर्थ का पुरुषार्थ उतना ही वांछनीय है जो धर्म को बाधित न करे और धर्म का पुरुषार्थ उतना ही वांछनीय है जो काम और अर्थ को बाधित न करे।
१४५. न बाधां जनयन्त्येते, परस्परमबाधिताः ।
वैदिको व्यवहारोऽयं, पुरुषार्थचतुष्टये ॥
आचार्य ने पुनः कहा-ये तीनों पुरुषार्थ परस्पर अबाधित होकर बाधा उत्पन्न नहीं करते । यह पुरुषार्थ चतुष्टय के विषय में वैदिक व्यवहार है।
धर्म के दो रूप
१४६. उपादानस्य दृष्टयात् तु, धर्मोऽसौ शाश्वतो मतः ।
धर्मस्य नियमास्तावत्, भवन्ति परिवर्तिताः ।।
भंते ! धर्म शाश्वत है या अशाश्वत ?
वत्स ! उपादान की दृष्टि से धर्म शाश्वत है । धर्म के नियम परिवर्तित होते हैं, बदलते रहते हैं। अत: नियम की दृष्टि से वह अशाश्वत भी है।
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