________________
आलोक प्रज्ञा का
गुरुदेव ! बोलने में किन बातों का विवेक जरूरी है ?
वत्स ! बोलने में न तो आग्रह हो और न माया हो। वचन ऐसा भी न हो जिससे किसी की हिंसा और अहित होता हो । वह संदिग्ध विषय में निश्चयात्मक न हो। ये सब वाणी की कसौटियां हैं।
सब कुछ कहा नहीं जाता १४२. अवक्तव्यः पदार्थश्चाऽनेकधर्मात्मको यतः ।
एतत् पदार्थमीमांसाक्षेत्र व्यवहृतं भवेत् ।। १४३. अवक्तव्यमिदं दृष्टं, श्रुतं सर्वं न कथ्यताम् ।
एतदाचारमीमांसाक्षेत्रे स्यादुपयोजितम् ॥ शिष्य-भगवन् ! क्या सब कुछ कहा जा सकता है ?
आचार्य-नहीं, अवक्तव्य के दो क्षेत्र हैं--पदार्थमीमांसा और आचारमीमांसा । पदार्थ अनेक धर्मात्मक होता है। सब धर्मों को एक साथ नहीं कहा जा सकता, इसलिए वह अवक्तव्य है । पदार्थमीमांसा के क्षेत्र में यह अवक्तव्य व्यवहृत होता है ।
सब कुछ देखा हआ और सब कुछ सना हुआ कहना नहीं चाहिए। यह आचारक्षेत्रीय अवक्तव्य है।
पुरुषार्थ चतुष्टय १४४. कामो नो बाधते योऽर्थ, सोऽर्थः कामं न बाधते ।
धर्म न बाधते तौ च, धर्मश्च तौ न बाधते ।। शिष्य-गुरुदेव ! पुरुषार्थ के चार अंग हैं-काम, अर्थ,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
___www.jainelibrary.org