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आलोक प्रज्ञा का
आदि के बिना वृक्ष और ज्ञान शून्य आचार वैसा ही है जैसे मूल [जड़] के बिना वृक्ष ।
१३६. ज्ञानं मूलं रसस्रोतः, आचार: फलमिष्यते ।
प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च, तथौदासीन्यमुच्छितम् ॥ ____ भंते ! ज्ञान और आचार में मूल क्या है और फल क्या
वत्स ! ज्ञान मूल है । वह रस का स्रोत है । आचार उसका फल है । प्रवृत्ति, निवृत्ति और औदासीन्य-ये सब फल के नाना
अनेकान्तवाद
१४०. द्वैतवादस्य सांगत्यं, नाऽनेकातं विना भवेत् ।
भेदः स्वभावजो मान्यः, सहावस्थानजो नवै ।।
विभो ! क्यों द्वैतवाद और अनेकान्त में कोई संबन्ध है ? ____वत्स ! अनेकान्त के बिना द्वैतवाद की संगति नहीं होती। भेद स्वभाव से मान्य होता है, पर सहावस्थान और भेद---ये दोनों एक साथ अनेकान्त के द्वारा ही मान्य होते हैं।
भाषाविवेक
१४१. आग्रहो नैव नो माया, नो हिंसा नाऽहितं भवेत् ।
नो निश्चयः संदिहाने, परीक्षाऽसौ वचोगता ॥
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